भटकती प्रेम राह
–भटकती प्रेम राह—
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मन था बहुत अशांत सा
दिल था थोड़ा चिंतित सा
भटक रहा था निज राह से
आस में था किसी पनाह से
ढूँढने निकला एकांत वास
चल दिया ठिकाने के पास
भटकता पथिक सा पहुंचा मैं
विरान बियाबान जंगल में
रूक गया वहाँ इस आस में
हो जाएगा शांत मन वास में
लेकिन नजर गई वहाँ सुदूर
जो झाड़ियाँ थी थोड़ी दूर
नजर आया लहराता दुपट्टा
लहू से लाल रंग का था दुपट्टा
ध्यान से देखा जब वह दृश्य
बहुत रंगीन संगीन था परिदृश्य
दुनियादारी से था बिल्कुल दूर
झलक रहा था प्रेम का गरूर
एक प्रेमी युगल आया नजर
प्रेम रस का था उन पर असर
प्रेम क्रियाओं में था मशगूल
रहा सारी दुनियां को था भूल
अंग प्रत्यंग हूए थे घने लिपटे
एक दूसरे में वो थे बहुत सिमटे
जवानी के नशे में हो चूर चूर
दुनियावी नजरों से हो कर दूर
कर रहे थे वो जिंदगी की भूल
तोड़़ रहे थे मर्यादा के असूल
जो मिला था उनको ये मौका
शायद दे रहे थे खुद को धोखा
लगता है यही कलयुगी प्रीत
टूट रही है प्रेम की सच्ची रीत
यह सब देख कर पैदा हुई भ्रांति
शांत मन में फैली फिर अशांति
व्यथित ओर विचलित हुआ मन
क्या प्यार सिमटा कूवल पर तन
लाज हया कर दी गई है अर्पण
प्यार का फ़क़त देह तक समर्पण
क्या यही है प्रेम की परिभाषा
काया मिलन ही है इसकी भाषा
क्या यही है प्यार का अंतिम पड़ाव
और यही है बस प्रेम की घनी छांव
क्या वासनायुक्त ही यह प्यार
झूठा सिद्ध हो रहा है सच्चा प्यार
शायद जिस्मों तक ही यह सीमित
जिसको कहते है लोग प्रेम असीमित
प्रश्नों का नहीं मिल रहा था उत्तर
हो कर के पूर्णतया इनसे निरूत्तर
आ गया वापिस विचलित व्यथित
सुखविंद्र अशांत सा और चिंतित
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)
9896872258