भगवान ‘को’ मानते हैं, भगवान ‘की’ नहीं।
अपने हिसाब से हम भगवान का चुनाव करते है। फिर वो हमारे हो जाते हैं, हमारे ही शब्दों में। हम भगवान् को अपने हृदय से लगाने की बात कहते हैं। उनके लिए अन्न जल तक का त्याग करने में हमें ख़ुशी मिलती हैं। कभी उनकी महंगी से महंगी मूर्ती को घर में लाते है, उस पर सोना चढ़ाते हैं। हर रोज़ उसके आगे बैठ, धुप, दीप जला भगवान् की आराधना करते है। कहते है कि हम भगवान् को बहुत मानते है, परंतु सवाल ये हैं कि क्या हम भगवान “की” मानते हैं? जवाब खुद से मांगों तो अंतरात्मा से एक ही शब्द निकलेगा। नही। कितने खुदगर्ज़ है न हम .. अपनी सहूलियत से भगवान को अपना बना लेते है लेकिन उनके दिखाये रास्ते पर चलने को हम बिलकुल तैयार नही है। ये तो वही बात हुई न की पिताजी को महंगे से महंगे पलंग पर सुलाए, उन्हें सोने की थाली में भोजन परोसे, उन्हें हर ऐशो आराम मुहैया कराए, परन्तु जब पिताजी ने एक आज्ञा दी.. एक पानी का गिलास माँगा, हम खिसकने लगे या नौकर से कह इस आफत को छुड़ाए। विचित्र है यह। यह एक गंभीर विषय हैं। जरुरी ये नही की भगवान को मानने की परिक्षा में हम जनता के सामने अपने आडंबर ही रखे। जरुरी ये है उनकी बताई हुई बातों को हम साक्षात् अपने जीवन में उतारे। तभी सच्चे अर्थों में हम भगवान को पा सकेंगें।
– नीरज चौहान