भक्त हरिदास यवन
‘भगवन्! मुझे मारने वाले इन भूले हुए जीवों को
अपराधसे मुक्त करो, इन्हें क्षमा करो, दया करो!’
—हरिदासजी
हरिदास जी यशोहर जिले के बूड़न गाँव में एक गरीब मुसलमान के घर पैदा हुए थे। पूर्व-संस्कारवश लड़कपन से ही हरिदास जी को हरिनाम से प्रेम था। ये घर-द्वार छोड़कर बनग्राम के पास बेनापोल के निर्जन वन में कुटी बनाकर रहने लगे थे। हरिदासजी बड़े ही क्षमाशील, शान्त, निर्भय और हरिनाम में अटल विश्वासी साधु थे। कहते हैं कि हरिदासजी प्रतिदिन तीन लाख हरिनाम का जप जोर-जोर से किया करते थे। जोर से जप करने का उनका उद्देश्य यह था कि हरिनाम बड़ी विलक्षण सुधा है, जोर से जप करने से उस सुधा का रस सब सुनने वालों को भी मिलता है। कितने ही भक्त लोग नित्य हरिदासजी के दर्शनों के लिये आते थे और उनके चरण छूकर धन्य होते थे। वे सबको हरिनाम लेने का उपदेश देते थे और कहते थे कि बिना हरिनाम के आदमी का उद्धार नहीं हो सकता। शरीर-निर्वाह के लिये वे गाँव से भीख माँग लाया करते थे। किसी दिन कुछ ज्यादा मिल जाता तो उसे बालकों या गरीबों को बाँट देते। दूसरे दिन के लिये संग्रह नहीं करते। इनके जीवन की दो-तीन प्रधान घटनाएँ है।
एक बार बनग्राम के रामचन्द्र नामक एक दुष्ट हृदय जमींदार ने हरिदासजी की साधना नष्ट करने के लिये धनका लालच देकर एक सुन्दर वेश्या को तैयार किया। वेश्या हरिदासजी की कुटि पर पहुँची, वे नामकीर्तन में निमग्न थे। हरिदासजी का मनोहर रूप देखकर वेश्या के मन में भी विकार हो गया और वह निर्लज्जता से तरह-तरह की कुचेष्टाएँ करने लगी। हरिदासजी रातभर जप करते रहे, कुछ भी न बोले। प्रातःकाल उन्होंने कहा, ‘नामजप पूरा न होने से मैं तुमसे बात न कर सका!’
वेश्या तीन रात तक लगातार हरिदासजी की कुटिया पर आकर अनेक तरह की चेष्टाकर हार गयी। हरिदासजी का नामकीर्तन क्षणभर के लिये भी कभी रुकता नहीं था। चौथे दिन रात को वह हरिदासजी की कुटी पर आकर देखती है कि हरिदासजी बड़े प्रेम से नामकीर्तन कर रहे हैं, आँखों से आँसुओं की धारा बहकर उनके वक्षःस्थल को धो रही है। वेश्या तीन रात हरिनाम सुन चुकी थी, उसका अन्तःकरण बहुत कुछ शुद्ध हो चुका था। उसने सोचा, ‘जो मनुष्य इस तरह मुझ जैसी परम सुन्दरी के प्रलोभन की कुछ भी परवा न करके हरिनाम में इतना उन्मत्त हो रहा है, वह कोई साधारण मनुष्य नहीं है। अवश्य ही इसको कोई ऐसा परम सुन्दर पदार्थ प्राप्त है, जिसके सामने जगत् के सारे रूप तुच्छ हैं।’ वेश्या का हृदय बदल गया, फँसाने आयी थी, स्वयं फँस गयी। साधु-अवज्ञा के अनुताप से रोकर वह हरिदासजी के चरणों पर गिर पड़ी और बोली, ‘स्वामी में महापापिनी हूँ, मेरा उद्धार करो।’ हरिदासजी उसे हरिनाम दान से कृतार्थ कर वहाँ से चल दिये। वेश्या अपना सर्वस्व दीन दुःखियों को लुटाकर तपस्विनी बन गयी और उसी कुटि में रहकर भजन करने लगी और आगे चलकर वह महान् भक्त हुई। यह साधु-सङ्ग और नाम श्रवण का प्रत्यक्ष प्रताप है।
इस प्रकार वेश्या का उद्धार करके हरिदासजी शान्तिपुर गये। अद्वैताचार्यजी नाम के एक प्रसिद्ध विद्वान् वैष्णव वहाँ रहते थे। उन्होंने हरिदासजी को बड़े प्रेम से अपने घर में ठहराया। दोनों में बड़े प्रेम से हरिचर्चा होने लगी। अद्वैताचार्यजी भागवत आदि ग्रन्थों को पढ़कर हरिदासजी को सुनाते थे। उन्होंने अपने ग्राम के निकट हरिदासजी के लिये एक गुफा बनवा दी थी। हरिदासजी उसी में हरिभजन किया करते थे। केवल दोपहर में अद्वैताचार्य जी के घर आकर भोजन कर जाया करते थे।
शान्तिपुर के पास ही फुलिया गाँव है। यह ब्राह्मणों की बस्ती है। यद्यपि हरिदासजी यवन थे, फिर भी वे जिस प्रेम और भक्ति से हरि की सेवा करते थे, उससे सब लोग उनका बड़ा आदर करते थे। वे नित्य गंगास्नान करते और बड़े प्रेम से हरिनाम का उच्चारण करते थे।
उस समय मुसलमानों का राज्य था। हिंदुओं को अपने धर्मविश्वास के अनुकूल आचरण करना कठिन था। ऐसे समय में हरिदासजी का मुसलमान रहते हुए ही हिंदू आचरण करना अधिकारियों को बड़ा खटका। इसलिये गोराई काजी ने मुलुकपति को अदालत में नालिश की कि हरिदास को राजदण्ड मिलना चाहिये। अतएव मुलुकपति के आज्ञानुसार हरिदासजी पकड़कर बुलाये गये और जेलखाने में डाल दिये गये। उनकी गिरफ्तारी से फुलिया के लोगों के हृदयों में बड़ी चोट लगी।
जेलखाने में कैदियों ने हरिदासजी के प्रति बड़े भक्ति-भाव का परिचय दिया। हरिदास जी ने कहा, ‘जैसी भगवान् को भक्ति तुमने इस समय की है, वैसी ही सदा भगवान् में बनाये रखो तुम दो-तीन दिन में छोड़ दिये जाओगे।’ उनकी वाणी सत्य निकली। वे दो-तीन दिन बाद छोड़ दिये गये। जब हरिदास का मुकदमा लिया गया, तब अदालत में बड़ी भीड़ थी। न्यायाधीश ने हरिदासजी का सम्मान कर उनको अच्छी तरह बैठने के लिये आसन दिया। न्यायाधीश ने हरिदासजी से मधुर शब्दों में कहा कि ‘आप बड़े भाग्य से तो मुसलमान हुए फिर काफिरों के देवताओं के नाम क्यों लेते हो और उन्हींके से आचरण क्यों करते हो? मैं तो हिंदू का भोजन भी नहीं करता। इस पाप से मरने के बाद भी आपका उद्धार नहीं होगा। अब आप कलमा पढ़ ले तो आपकी रक्षा हो जायगी।’ हरिदासजी ने विनयपूर्वक उत्तर दिया ‘हे पूज्य न्यायाधीश! इस संसार का मालिक एक ही है। हिंदू और मुसलमान उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। मुझे जिस तरह रुचता है, उसी तरह मैं ईश्वर की सेवा करता हूँ। यदि कोई हिंदू मुसलमान हो जाता है तो हिंदू उस पर अत्याचार नहीं करते। मुझे और कुछ नहीं कहना ।’
हरिदासजी की विनयपूर्ण और ठीक बातें सुनकर सब प्रसन्न हुए न्यायाधीश मुलुकपति भी प्रसन्न हुए। पर गोराई काजी किसी तरह भी मानने वाला आदमी नहीं था और उसके हृदय में दया का लेश भी नहीं था। उसने न्यायाधीश से कहा कि ‘कानून के अनुसार हरिदास को सख्त सजा होनी चाहिये नहीं तो इनकी देखा-देखी और मुसलमान भी हिंदू हो जायेंगे और इससे इस्लाम का बड़ा अहित होगा।’ अदालत ने हरिदासजी से कहा-‘ऐसी दशा में या तो आप हरिनाम जपना छोड़ दें, नहीं तो आपको सख्त सजा भोगनी पड़ेगी।’ हरिदासजी ने उत्तर दिया
“खंड खंड करे देह यदि जाय प्रान।
तबू आमि बढ्ने ना छाड़िय हरिनाम॥”
अर्थात् —’हमारी देह के टुकड़े-टुकड़े कर दो, चाहे प्राण भी चले जायें, तब भी हम मुँह से हरिनाम कहना नहीं छोड़ेंगे।’
यह सुनकर न्यायाधीश ने काजी की सलाह से उन्हें यह सजा दी कि बाईस बाजारों में घुमाकर इनकी पीठ पर इतने बेंत लगाये जायें कि इनके प्राण निकल जायें। पाषाणहृदय सिपाहियों ने हृदयविदारक दुष्कर्म आरम्भ कर दिया। पर हरिदासजी के मुख से उफ निकलना तो दूर रहा वे बड़ी प्रसन्नता से हरिनाम कीर्तन करने लगे। सिपाही मारते हुए ‘हरि’ नाम छोड़ने को कहते। हरिदासजी कहते ‘एक बार हरि का नाम फिर लो और मुझे मारो।’ आखिर सिपाहियों की दशा पर दया करके हरिदासजी अश्रुपूर्ण नेत्रों से भगवान् से प्रार्थना करने लगे ‘भगवन्! मुझे ये लोग भूल से पीट रहे हैं इन जीवों को इस अपराध से मुक्त करो, इन्हें क्षमा करो। कृपा करो।’ यों कहते-कहते हरिदासजी बेहोश हो गये। उन्हें मरा समझकर सिपाहियों ने काफिर को कब्र देना मुनासिब न जान गङ्गा में बहा दिया। थोड़ी देर बाद हरिदासजी चेतन होकर किनारे पर निकल आये। इस घटना का न्यायाधीश मुलुकपति और काजी दोनों पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वे भी इनके चरणों पर गिरकर इनके अनुयायी बन गये और हरिनाम लेने लगे। उनकी सच्ची शुद्धि हो गयी।
एक बार हरिदासजी सप्तग्राम में हिरण्य मजूमदार नामक जमींदार की सभा में हरिनाम का माहात्म्य वर्णन करते हुए कह रहे थे कि ‘भक्तिपूर्वक हरिनाम लेने से जीव के हृदय में जो भक्तिप्रेम का संचार होता है, वही हरिनाम लेने का फल है।’ इसी बातचीत में जमींदार के गोपाल चक्रवर्ती नामक एक कर्मचारी ने हरिनाम की निन्दा करते हुए कहा कि ‘ये सब भावुकता की बातें हैं। यदि हरिनाम से ही मनुष्य की नीचता जाती रहे तो मैं अपनी नाक कटवा डालूँ।’ हरिदासजी ने बड़ी दृढ़ता से कहा ‘भाई! हरि-नाम-स्मरण और जप से यदि मनुष्य को मुक्ति न मिले तो मैं भी अपनी नाक काट डालूँगा।’ कहा जाता है कि दो-तीन महीने बाद ही गोपाल की नाक कुष्ठ रोग से गलकर गिर पड़ी।
इसी समय चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप में हरि-नाम-सुधा बरसा रहे थे । हरिदासजी भी वहीं आकर रहने और हरि कीर्तन का आनन्द लूटने लगे। चैतन्यदेव की आज्ञा से हरिनाम के मतवाले हरिदासजी और श्रीनित्यानन्दजी दोनों नाम कीर्तन और नृत्य करते हुए नगर में चारों ओर घूम-फिरकर दिनभर नर-नारियों को हरि-नाम वितरण करने लगे।
अन्त में श्रीचैतन्य के संन्यासी होने के बाद हरिदासजी पुरी में आकर श्रीचैतन्य की आज्ञा से काशी मिश्र के बगीचे में कुटि बनाकर रहने लगे। वहीं इनकी मृत्यु हुई। मृत्यु के समय श्रीचैतन्य महाप्रभु अपनी भक्तमण्डली के साथ हरिदास जी के पास थे। हरिदासजी के मृत शरीर को उठाकर श्रीचैतन्य नाचने लगे। अन्त में मृत शरीर एक विमान में रखा गया। श्रीचैतन्य स्वयं कीर्तन करते हुए आगे-आगे चले। श्रीचैतन्य ने हरि-नाम की ध्वनि से नभोमण्डल को निनादित करते हुए अपने हाथों हरिदास के शव को समाधिस्थ किया।
||जय श्री हरि|| 🙏🏻