“भक्त नरहरि सोनार”
नरहरि सोनार का जन्म सं. 1313 में भूवैकुंठ पंढरपूर धाम में हुआ था। (कुछ संतो का मत है कि इनका जन्म सवंत शके 1115 श्रावण मास शुक्ल पक्ष त्रयोदशी को अनुराधा नक्षत्र में प्रातः काल हुआ था।)
नरहरि सोनार रहने वाले थे पण्डरपुर के ही, पर थे शिवजी के भक्त। एसे भक्त जो कभी श्रीविट्ठल जी के दर्शन ही नहीं करते थे। पण्ढरपुरमें रहकर भी कभी इन्होंने पण्ढरीनाथ श्रीपाण्डुरंग के दर्शन नहीं किये। शिव भक्ति का ऐसा विलक्षण गौरव इन्हें प्राप्त था। एक बार ऐसा संयोग हुआ। एक सज्जन ने इन्हें श्री विट्ठल की कमर की करधनी बनाने के लिए सोना दिया और कमर का नाप भी बता दिया। इन्होंने करधनी तैयार कर दी, पर वह कमर से चार अंगुल बड़ी हो गयी। उसे छोटी करने को कहा गया तो वह कमर से चार अंगुल छोटी हो गयी। फिर वह बड़ी की गई तो चार अंगुल बढ गयी, फिर छोटी की गयी तो चार अंगुल घट गयी। इस प्रकार चार बार हुआ लाचार होकर नरहरि सोनार ने स्वयं चलकर नाप लेने का निश्चय किया। पर कहीं श्रीविट्ठल भगवान् के दर्शन न हो जायें, इसलिये इन्होंने अपनी ऑखों पर पट्टी बांध ली। नरहरी सोनार ने माप लेने हेतु अपने हाथ भगवान् की कमर पर लगाये। हाथ लगते ही उन्हें कुछ विलक्षण अनुभव हुआ। कमर पर हाथ लगते ही उन्हें महसूस हुआ की यह तो व्याघ्रचर्म है। कांपते हाथो से उन्होंने भगवान् के अन्य अंगो का स्पर्श किया । आश्चर्य! उन्हें भगवान् के एक हाथ में कमंडलू एवं दूसरे हाथ में त्रुशुल का स्पर्श हुआ। अपना हाथ गले पर ले जाने पर उन्हें सर्प का स्पर्श हुआ।
नरहरी ने कहा ‘यह तो विट्ठल नहीं है,ये तो साक्षात् शिवशंकर लग रहे है। मैंने व्यर्थ ही अपनी आखो पर पट्टी बाँध रखी है?’ उन्होंने आँखों से पट्टी हटाई और देखा तो सामने श्री विट्ठल है। उन्होंने फिर आँखे बंद कर ली और श्री विट्ठल की कमर का नाप लेने लगे पुनः उनको व्याघ्रचर्म, कमंडल, त्रिशूल और सर्प का स्पर्श हुआ। आँखे खोली तो पुनः पांडुरंग विट्ठल दिखे और आँखे बंद करने पर शंकर। तीन बार ऐसा ही हुआ। एकाएक नरहरि सुनार को यह बोध हो गया कि जो शंकर है वही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल हैं, वे ही शंकर है। दोनो एक ही हरि-हर है। नरहरी सोनार ने भगवान् विट्ठल के चरण पकड लिए। उनका समस्त अहंकार गल गया। अब उनकी उपासना, जो एकदेशीय थी, अति उदार, व्यापक हो गयी और वे श्रीविठ्ठल भक्तो के वारकरी मण्डलमे सम्मिलित हो गये।
सुनारी इनकी वृत्ति थी। इसी वृत्तिमे रहकर ‘स्वकर्मणा’ भगवान् का अर्चन करने का बोध इन्हें किस प्रकार हुआ, इसका निदर्शक इनका एक अभंग है, जिसमें नरहरि सुनार कहते हैं- ‘भगवन्! मै आपका सुनार हूँ, आपके नाम का व्यवहार करता हूँ । यह देह गले का हार है, इसका अन्तरात्मा सोना है। त्रिगुण का सांचा बनाकर उसमे ब्रह्मरस भर दिया। विवेक का हथौड़ा लेकर उससे काम क्रोध को चूर किया और मन-बुद्धि की कैंची से राम-नाम बराबर चुराता रहा। ज्ञान के कोटे से दोनों अक्षरों को तौला और थैली मे रखकर थैली कंधे पर उठाये रास्ता पार कर गया। यह नरहरि सुनार, हे हरि! आपका दास है रात दिन आपका ही भजन करता है।’
इनके जीवन के बहुत से प्रसंग है। परंतु यहाँ इनके जीवन का मुख्य प्रसंग ही लिखा गया है।
|| जय श्री कृष्ण || 🙏🏻