#भक्तिपर्व-
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■ जलझूलनी एकादशी।
【प्रणय प्रभात】
आज भाद्रपद शुक्ल एकादशी है। जिसे जलझूलनी एकादशी के अलावा विमान एकादशी व परिवर्तनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। हमारे क्षेत्र में इसे डोल-ग्यारस कहते हैं। इस पुण्यदायी पर्व पर पौराणिक मान्यताओं के अनुसार विभिन्न देवालयों की देव-प्रतिमाओं को जल-विहार के लिए जलाशयों तक ले जाया जाता है।
जलविहार या दर्शन के लिए भगवान के श्री-विग्रह को विमानों में विराजित कर सामूहिक चल-समारोह के रूप में जलाशयों तक ले जाने का विधान है। मुख्यत: काष्ठ-निर्मित उक्त विमान सवर्ण या रजत वर्ण से मंडित होते हैं। मंदिर की प्रतिकृति के आकार वाले यह कलात्मक विमान डोली की तरह चार भक्त कंधों पर उठा कर ले जाए जाते हैं। जो अपने आप में एक सौभाग्य का विषय होता है।
दीर्घकाल से चली आ रही परम्पराओं के अनुसार इस पर्व पर देवविमानों को जलाशय के किनारे पंक्तिबद्ध विराम दे कर मंगल-आरती की जाती है। सांध्य-आरती के बाद विमान जनदर्शन हेतु रखे जाते हैं। जिन्हें मध्यरात्रि वेला में शयन-आरती के बाद देवालयों के लिए वापस ले जाया जाता है।
मेरे अपने शहर में यह पर्व आज एक विराट रूप धारण कर चुका है। जिसमें नगर व ग्रामीण क्षेत्र सहित वनांचल तक के हज़ारों आस्थावान सैलाब बन कर उमड़ते हैं। दर्ज़न भर से अधिक बेंड-दलों व डीजे वाहनों के बीच लगभग चार दर्ज़न देवस्थलों के विमान पहले मुख्य चौराहे पर एकत्रित होते हैं और फिर सामूहिक चलयात्रा को विराट बना देते हैं। श्री बजरंग व्यायाम शाला के अधीन संचालित विविध समाजों व उपक्षेत्रों के अखाड़े चल समारोह में सामाजिक समरसता की भावना के साथ सहभागी बन कर परिवेश को रोमांचक बनाते हैं। जीवंत झांकियां भी चल-समारोह को भव्यता प्रदान करती हैं।
भक्तजन विमानों पर फल-फूल व दान-दक्षिणा अर्पित करते हैं। छोटे बच्चों को आशीष दिलाने के लिए विमानों के नीचे से निकाला जाता है। यह सब उपक्रम आज एक बार फिर दोहराए जाएंगे। जिनके साक्षी कम से कम एक लाख लोग बनेंगें।
सौहार्द्र व सद्भाव का केंद्र रही हमारी नगरी की साम्प्रदायिक एकता भी इस पर्व पर परिलक्षित होती है। अधिकांशतः मुस्लिम बिरादरी के स्वामित्व वाले बेंड दल इस शोभायात्रा को भजनों व लोकगीतों से रसमय बनाते हैं। बताया जाता है कि नए मांगलिक सत्र के लिए बेंड कलाकारों की वर्दी भी इसी दिन बदली जाती है। जिसे वे वर्ष भर धारण करते हैं। प्रशासन, पुलिस व नगर प्रशासन आयोजन में अहम भूमिका अदा करता है। इस पर्व के लिए एक दिन का स्थानीय अवकाश भी घोषित होता है।
समाजसेवी नगर जन व प्रतिष्ठित परिवार दर्शनार्थियों के लिए अपनी छतों व झरोखों के रास्ते खोलने के साथ-साथ जल-सेवा आदि के प्रबंध करते हैं। सामाजिक संस्थाएं व सेवाभावी संगठन भी सेवा, स्वागत व सुविधा के लिए स्टॉल सजाते हैं। कुछ संगठन मेले में आने वाले आदिवासियों व निर्धनों के लिए भोजन का वितरण भी करते हैं। आज भी करेंगे।
छोटे व सामुदायिक स्तर पर चल-समारोह अनेक गांवों व कस्बों में भी होंगे। कुल मिला कर धार्मिक ही नहीं सामाजिक व सांस्कृतिक पर्व के रूप में समरसता व समभाव का प्रतीक बन चुका यह उत्सव लगातार दिव्य और भव्य हो रहा है। यह परंपरा और समृद्ध व सुदृढ़ हो, ऐसी कामनाएं। सकल सनातनी समाज का वंदन, अभिनंदन। जय युगल सरकार की।।
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-सम्पादक-
●न्यूज़&व्यूज़●
(मध्य-प्रदेश)