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28 Apr 2017 · 2 min read

ब्राह्मण कुल दिनकर

ब्राह्मण कुल के वे दिनकर थे,
नारायण के अवतारी थे।

जटा शीश और हाथ खड्ग,
शत्रु पर एकल भारी थे।

ओज शिव से पाये थे,
वह रक्षक बन कर आये थे।

परशु वरदान स्वरूप् मिला,
तो परशुराम कहलाये थे।

सूर्य कांति मुख तेज भरा,
धन्य हो गई थी ये धरा।

भय त्रास बहुत था भूपों का,
इस खातिर ही दुष्टों को हरा।

दानव संघारक स्वामी थे,
वे खुद ही अंतर्यामी थे।

थे कलुष नष्ट करने आये,
ब्राह्मण क्रोधी अभिमानी थे।

जब जब नृप निर्भय से होकर,
निर्बल पर बल दिखलाते थे।

तब तब वह रणयोगि महान,
संघारक बन कर आते थे।

वह बल अशेष वह रण कौशल,
वह अडिग अटल वह थे निश्छल।

थे अभिमानी स्वभिमानी थे,
वह शस्त्र शास्त्र के ज्ञानी थे।

लेकर परशु जब निकल पड़े,
राजा सारे तब विकल खड़े।

कर जोड़ सभी विनती करते,
करें नाथ दया हम पग पड़ते।

हर क्षत्रिय पर कोप न करते थे,
बस दुष्ट अधर्मी को हरते थे।

वह नही सिर्फ संघारक थे,
पालक थे गहन विचारक थे।

एक रोज ध्यान में लीन प्रभु,
शिव नाम मग्न हो बैठे थे।

तभी एक क्षत्रिय नृप हठी राजा,
धर्म नाश कर ऐंठे थे।

प्रभु तात प्राण लेकर के वह,
अट्हास कर गाता था।

अपनी करनी पर वह पापी,
न घबराता न लजाता था।

माँ की पुकार सुनी प्रभु ने,
तप ध्यान भंग चेतना जगी।

दृश्य देख जो सम्मुख था,
ज्वाला सी अग्नि तन में लगी।

तात प्राण तज रहे सदृश,
माँ को क्रंदन करते देखा।

बस उसी दिन से लिख गया,
अधर्मी नृपों का काल लेखा।।

क्रमशः

शाम्भवी मिश्रा

जय परशुराम।
जय महाकाल

Language: Hindi
1 Like · 528 Views
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