ब्रज की चाह
जय प्रेममयी वृषभानुलली।
निधिवृन्द बसी मृदु कुंजकली।।
मन-मंदिर से मधुभाव भरूँ ।
चरणों में अर्पित पुष्प करूँ ।।
मनमोहन से अब प्रीत लगी।
प्रभुदर्शन की अभिलाष जगी।।
ब्रज की धरती पर मोर बनूँ ।
यमुना तट आकर रोज नचूँ ।।
छंद तोटक
सगण ४: ।।s ।।s ।।s ।।s
जगदीश शर्मा सहज