बौद्ध धर्म – एक विस्तृत विवेचना
बौद्ध धर्म भारत की श्रावक परंपरा से निकला ज्ञान धर्म और दर्शन है। श्रावक ( संस्कृत ) या
सावक ( पाली ) का अर्थ है “सुनने वाला” या, अधिक सामान्यतः, “शिष्य”। ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में गौतम बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया गया।
गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में लुंबिनी (वर्तमान नेपाल में) में में हुआ, उन्हें बोध गया में ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिसके बाद सारनाथ में प्रथम उपदेश दिया, और उनका महापरिनिर्वाण 483 ईसा पूर्व कुशीनगर,भारत में हुआ था।
उनके महापरिनिर्वाण के अगले पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला और अगले दो हजार वर्षों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में भी फैल गया। भगवान बुद्ध ओर महात्मा बौद्ध दोनों अलग अलग है , हीनयान, थेरवाद, महायान , वज्रयान एवं
नवयान(आम्बेडकरवादी) बौद्ध धर्म में प्रमुख सम्प्रदाय हैं। दुनिया के करीब 2 अरब (29%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं।
सिद्धान्त
तेल, एवं बत्ती से प्रदीप्त दीपशिखा की भाँति तृष्णा, अहंकार के ऊपर प्राणी का चित्त (=मन =प्रज्ञान =कांशसनेस) धाराशील प्रवाहित हो रहा है। इसी में उसका व्यक्तित्व निहित है। इसके परे कोई ‘एक तत्व’ नहीं है।
सारी अनुभूतियाँ उत्पन्न हो संस्काररूप से चित्त के निचले स्तर में काम करने लगती हैं। इस स्तर की धारा को ‘भवंग’ कहते हैं, जो किसी योनि के एक प्राणी के व्यक्तित्व का रूप होता है। पाश्चात्य मनोविज्ञान के ‘सबकांशस’ की कल्पना से ‘भवंग’ का साम्य है। लोभ-द्वेष-मोह की प्रबलता से ‘भवंग’ की धारा पाशविक और त्याग-प्रेम-ज्ञान के प्राबल्य से वह मानवी (और दैवीय भी) हो जाती है। इन्हीं की विभिन्नता के आधार पर संसार के प्राणियों की विभिन्न योनियाँ हैं। एक ही योनि के अनेक व्यक्तियों के स्वभाव में जो विभिन्नता देखी जाती है उसका भी कारण इन्हीं के प्राबल्य की विभिन्नता है।
जब तक तृष्णा, अहंकार बना है, चित्त की धारा जन्म जन्मान्तरों में अविच्छिन्न प्रवाहित होती रहती है। जब योगी समाधि में वस्तुसत्ता के अनित्य-अनात्म-दुःखस्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है, तब उसकी तृष्णा का अंत हो जाता है। वह अर्हत् हो जाता है। शरीरपात के उपरान्त बुझ गई दीपशिखा की भाँति वह निवृत्त हो जाता है।
आर्यसत्य की संकल्पना बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत है। इसे संस्कृत में ‘चत्वारि आर्यसत्यानि’ और पालि में ‘चत्तरि अरियसच्चानि’ कहते हैं
आर्य आष्टांगिक मार्ग भगवान बुद्ध की प्रमुख शिक्षाओं में से एक है जो दुखों से मुक्ति पाने एवं तथ्य-ज्ञान के साधन के रूप में बताया गया है।अष्टांग मार्ग के सभी ‘मार्ग’ , ‘सम्यक’ शब्द से आरम्भ होते हैं (सम्यक = अच्छी या सही)। बौद्ध प्रतीकों में प्रायः अष्टांग मार्गों को धर्मचक्र के आठ ताड़ियों (spokes) द्वारा निरूपित किया जाता है।
निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है – ‘बुझा हुआ’ (दीपक अग्नि, आदि)।
किन्तु बौद्ध, जैन धर्म श्रमण विचारधारा में (संस्कृत: निर्वाण;पालि: निब्बान;) पीड़ा या दु:ख से मुक्ति पाने की स्थिति है। पाली में “निब्बाण” का अर्थ है “मुक्ति पाना”- यानी, लालच, घृणा और भ्रम की अग्नि से मुक्ति। यह बौद्ध धर्म का परम सत्य है और जैन धर्म का मुख्य सिद्धांत।
यद्यपि ‘मुक्ति’ के अर्थ में निर्वाण शब्द का प्रयोग गीता, भागवत, रघुवंश, शारीरक भाष्य इत्यादि नए-पुराने ग्रंथों में मिलता है, तथापि यह शब्द बौद्धों का पारिभाषिक है। सांख्य, न्याय, वैशेषिक, योग, मीमांसा (पूर्व) और वेदांत में क्रमशः मोक्ष, अपवर्ग, निःश्रेयस, मुक्ति या स्वर्गप्राप्ति तथा कैवल्य शब्दों का व्यवहार हुआ है पर बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन में बराबर निर्वाण शब्द ही आया है और उसकी विशेष रूप से व्याख्या की गई है।
त्रिरत्न (तीन रत्न) बौद्ध धर्म के सबसे महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इन त्रिरत्नों पर ही बौद्ध धर्म आधारित हैं।
त्रिरत्न :- बुद्ध, धम्म और संघ.
बुद्ध : गौतम बुद्ध (जन्म 563 ईसा पूर्व – निर्वाण 483 ईसा पूर्व) एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ।
बौद्धधर्म में, बोधिसत्व (संस्कृत: बोधिसत्त्व; पालि: बोधिसत्त) सत्त्व के लिए प्रबुद्ध (शिक्षा दिये हुये) को कहते हैं। पारम्परिक रूप से महान दया से प्रेरित, बोधिचित्त जनित, सभी संवेदनशील प्राणियों के लाभ के लिए सहज इच्छा से बुद्धत्व प्राप्त करने वाले को बोधिसत्व माना जाता है।तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुसार, बोधिसत्व मानव द्वारा जीवन में प्राप्त करने योग्य चार उत्कृष्ठ अवस्थाओं में से एक है।
धम्म एक पाली भाषा का शब्द है जैसे संस्कृत में धर्म है वैसे ही पाली में धम्म है । परंतु धम्म की परिभाषा धर्म से अलग है।
धम्म का मतलब सामाजिक विज्ञान , धम्म का मतलब सामाजिक क्रांति , धम्म का मतलब सामाजिक बंधुत्व , धम्म का मतलब सामाजिक आत्मसम्मान।
लोग धर्म को मानने वाले हो सकते हैं परंतु धम्म को मानने वाले नहीं।
संघ संस्कृत का शब्द है- जिसका अर्थ सभा, समुदाय या संगठन है।
बुद्धं शरणं गच्छामि : मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
धम्मं शरणं गच्छामि : मैं बौद्ध धर्म की शरण लेता हूँ।
संघं शरणं गच्छामि : मैं बौद्ध संघ की शरण लेता हूँ।
थेरवाद या स्थविरवाद वर्तमान काल में बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाओं में से एक है। दूसरी शाखा का नाम महायान है। थेरवाद बौद्ध धर्म भारत से आरम्भ होकर दक्षिण और दक्षिण-पूर्व की ओर बहुत से अन्य एशियाई देशों में फैल गया, जैसे कि श्रीलंका, बर्मा, कम्बोडिया, वियतनाम, थाईलैंड और लाओस। यह एक रूढ़िवादी परम्परा है, अर्थात् प्राचीन बौद्ध धर्म जैसा था, उसी मार्ग पर चलने पर बल देता है।
महायान, वर्तमान काल में बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाओं में से एक है। दूसरी शाखा का नाम थेरवाद है। महायान बुद्ध धर्म भारत से आरम्भ होकर उत्तर की ओर बहुत से अन्य एशियाई देशों में फैल गया, जैसे कि चीन, जापान, कोरिया, ताइवान, तिब्बत, भूटान, मंगोलिया और सिंगापुर। महायान सम्प्रदाय कि आगे और उपशाखाएँ हैं, जैसे ज़ेन/चान, पवित्र भूमि, तियानताई, निचिरेन, शिन्गोन, तेन्दाई और तिब्बती बौद्ध धर्म।
वज्रयान :
वज्र
‘वज्र’ शब्द का प्रयोग मनुष्य द्वारा स्वयं अपने व अपनी प्रकृति के बारे में की गई कल्पनाओं के विपरीत मनुष्य में निहित वास्तविक एवं अविनाशी स्वरूप के लिये किया जाता है।
यान
‘यान’ वास्तव में अंतिम मोक्ष और अविनाशी तत्त्व को प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा है।
धर्म, तंत्रयान, मंत्रयान, गुप्त मंत्र, गूढ़ बौद्ध धर्म और विषमकोण शैली या वज्र रास्ता भी कहा जाता है। वज्रयान बौद्ध दर्शन और अभ्यास की एक जटिल और बहुमुखी प्रणाली है जिसका विकास कई सदियों में हुआ।
वज्रयान संस्कृत शब्द, अर्थात हीरा या तड़ित का वाहन है, जो तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहलाता है तथा भारत व पड़ोसी देशों में, विशेषकर तिब्बत में बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण विकास समझा जाता है। बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिये किया गया है।
बौद्ध ग्रंथ :
विनय जिसका संस्कृत अर्थ व्यक्तिगत
नम्रता एवं अग्रणी मार्गदर्शक विनम्रता है।
बुद्ध के निर्वाण के बाद उनके शिष्यों ने उनके उपदिष्ट में ‘धर्म’ और ‘विनय’ को संग्रहित कर लिया। अट्टकथा की एक परम्परा से पता चलता है कि ‘धर्म’ से दीघनिकाय आदि चार निकायग्रन्थ समझे जाते थे; और धम्मपद सुत्तनिपात आदि छोटे-छोटे ग्रंथों का एक अलग संग्रह बना दिया गया, जिसे ‘अभिधर्म’ (अतिरिक्त धर्म) कहते थे। जब धम्मसंगणि जैसे विशिष्ट ग्रंथों का भी समावेश इसी संग्रह में हुआ (जो अतिरिक्त छोटे ग्रंथों से अत्यंत भिन्न प्रकार के थे), तब उनका अपना एक स्वतंत्र पिटक- ‘अभिधर्मपिटक’ बना दिया गया और उन अतिरिक्त छोटे ग्रंथों के संग्रह का ‘खुद्दक निकाय’ के नाम से पाँचवाँ निकाय बना।
‘अभिधम्मपिटक’ में सात ग्रंथ हैं-
धम्मसंगणि, विभंग, जातुकथा, पुग्गलपंंत्ति, कथावत्थु, यमक और पट्ठान।
विद्वानों में इनकी रचना के काल के विषय में मतभेद है। प्रारंभिक समय में स्वयं भिक्षुसंघ में इसपर विवाद चलता था , कि क्या अभिधम्मपिटक बुद्धवचन है?
पाँचवें ग्रंथ कथावत्थु की रचना अशोक के गुरु मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की, जिसमें उन्होंने संघ के अंतर्गत उत्पन्न हो गई मिथ्या धारणाओं का निराकण किया। बाद के आचार्यों ने इसे ‘अभिधम्मपिटक’ में संगृहीत कर इसे बुद्धवचन का गौरव प्रदान किया।
शेष छह ग्रंथों में प्रतिपादन विषय समान हैं। पहले ग्रंथ धम्मसंगणि में अभिधर्म के सारे मूलभूत सिद्धांतों का संकलन कर दिया गया है। अन्य ग्रंथों में विभिन्न शैलियों से उन्हीं का स्पष्टीकरण किया गया है।