बोल रे कठपुतली
बोल रे कठपुतली
घर लौटा बाली तो घर में सन्नाटा पसरा है, किसी आशंका ने दस्तक तो दी लेकिन तुरंत झटक भी दिया, ऐसा कुछ तो हुआ नहीं, फिर बात क्या है ? एक पल में वह सारा कुछ सोचता चला गया, आज काम पर देर रात तक रुकना पड़ा, माल से भरा ट्रक रात में ही खाली करवाने के लिए वह रात की ड्यूटी पर रुक गया था, ऐसा अक्सर होता रहता है, इसलिए घर वालों को पता भी है।
सुबह की छ: बजे की शिफ्ट खत्म करके घर पहुँचा, मौसी अनमनी सी घर के पिछवाड़े जानवरों की गौशाला साफ कर रही है, मौसाजी कहीं नजर नहीं आए और न ही शिवकांति, मौसी की बेटी कहीं नजर आ रही हैं। चुभने वाला सन्नाटा, मन संकित भी है और जोर-जोर से नकार भी रहा है, कभी ऐसा कुछ तो हुआ नहीं फिर दिल इतनी तेज क्यों धड़क रहा है, बाली समझ नहीं पा रहा है यह कैसा अनजाना सा डर, बेहद खौफनाक।
वह आंगन में बिछी खाट पर बैठ गया, मौसा, मौसी की दो बेटियाँ हैं शिवकांति और रेवती,बाली को मौसी ने अपनी छोटी बहन से गोद लिया, तब बाली की उम्र पांच वर्ष की थी, तभी से बाली मौसी के घर रह रहा है, बहुत प्यार मिलता है।
पारिवारिक समारोहों में मां पिताजी अपनी बहनों से मिलता बाली तो हिदायतें बेशुमार दी जाती, अच्छे से रहना, कभी मौसी मौसाजी का दिल मत दुखाना, कितनी चौखी सोच है मौसाजी की, महानता के आभामंडल मैं वह स्वयं भी गिरफ्तार रहता।
धीरे-धीरे यह सब जीवन का हिस्सा बन गया, लेकिन स्वाभाविक रूप से जो बात घर कर गई थी, बहुत ही संभल कर रहना, हर वक्त यही डर रहता कि उसकी वजह से कोई परेशानी न हो, सहजता, अपनेपन का बोध सब खत्म हो चुका है।
न मां बाप के घर जाने पर अपनापन लगता, न ही मौसी के घर, दो पाटों के बीच पीसकर रह गया है बाली, कितना असहज जीवन फिर भी एक व्यवस्था है और वह जीवन यापन कर रहा है, बहनों से भरपूर प्यार है, शिवकांति चुकी हम-उम्र है, अतः छोटी-बड़ी नोंक-झोंक चलती रहती हैं।
रेवती छोटी के साथ-साथ हाजिर जवाब, ज़बान हर वक्त चलती, उसके रहने से घर में रौनक बनी रहती, वह भी कुछ दिनों से बाली के मां पिता के घर गई हुई है, शिवकांति और बाली ही है इस समय घर पर है। रात भर का जागा होने की वजह से खाट पर बाली लेट गया, थोड़ी देर में वह गहरी नींद की आगोश में समा गया।
एक झटके से किसी ने उसका हाथ पकड़ा और खड़ा कर दिया, वह संभल ही नहीं पाया कि जमीन पर लुढ़क गया, मौसा लात,घुसों से उसकी पिटाई करते रहे, वह कराहता ही रह गया। यह सब इतना अप्रत्याशित था कि वह कुछ समझ ही नहीं पाया।
मौसी ने दौड़कर मौसा जी को अलग किया तो मौसा, मौसी पर ही उबल पड़े…
“इसी के दोस्त के साथ गई है तुम्हारी बेटी,”…मौसा गरज कर बोले।
इतना सुनना था कि बाली के होश फाख्ता हो गए, क्या हुआ है ? वह कराहता प्रश्नवाचक दृष्टि से मौसाजी की ओर ताकता रहा।
“क्या कह रहे हो,”… मौसी, मौसा जी का हाथ पकड़ कर बोली ।
“पूछो इससे, कहाँ ले गया है वह किशन तुम्हारी बेटी को,”… लाल-लाल आँखें मौसा की अंगारे बरसा रही है।
बाली को सूझ ही नहीं रहा है, दोनों को ताके ही जा रहा है।
“वह तो ड्यूटी से अभी आया है उसे क्या पता,” मौसी ने पक्ष लिया।
“कैसे नहीं पता, इसी का दोस्त है उसको सब पता है, मुझे क्या पता सांप को दूध पिला रहा था इतने वर्षों से, मेरे ही घर को डस लिया,”… मौसा दोगुनी ताकत से गरजा।
बाली ने मौसा का यह रूप पहली बार देखा तो डर के मारे उसकी तो आवाज गुल हो गई, माजरा कुछ समझ में आ भी रहा था, तो कुछ नहीं भी, तभी मौसी ने मौसा को दूसरी खाट पर बैठाया और पानी लेने चली गई।
“कहाँ भेजा है उसे, अरे तेरी बहन है वह, तुझे कैसे नहीं पता, कहाँ गई,”… उसे पकड़ मौसा उसको सीने से लगा कर जोर जोर से रोने लगा।
“यह बात तुम्हें किसने बताई,”..मौसी ने दोनों को अलग किया पानी का ग्लास पकड़ते हुए पूछा ।
“गाँव में सभी को पता है, छुप-छुपकर मिलते थे दोनों, वह भी कल रात से घर से गायब है, उसका बाप मुझ पर ही बरस रहा था,”… मौसा का स्वर भीगा है, आँखों से अविरल आँसू बह रहे हैं, गमछे से आँसू पोछता जाता।
“तुम्हें नहीं पता था, तुम तो मां हो, यह भाई होकर न जान पाया कि क्या हो रहा है, मुझे नहीं पता, सारे गाँव को पता है, अब सब बोल रहे हैं, पहले बताते तो मैं सतर्क हो जाता, कितने बुरे हैं यह लोग.., मुझे दोष दे रहे हैं, तेरे बेटा का ही दोस्त है, तुझे कैसे नहीं पता, कहाँ गई होगी, हे भगवान इस दिन के लिए मां बाप बच्चियों को पालने पोसते हैं क्या? मेरी तो नाक कट गई,… मौसी भी अविरल रो रही है बाली उठकर मौसी के पास पहुँचा, मौसी उसको गले लगाकर फूट-फूट कर रोने लगी। जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहा मौसा।
“मौसी, शिवकांति कब से घर पर नहीं है,”..बाली समझने की कोशिश में पूछा।
“रात को तो थी, सुबह देखा तो पता नहीं कहाँ चली गई, गाँव में से तेरे सामने लौटे हैं यह, यही बता रहे हैं कि वह किशनवा के साथ,”… कहते मौसी फूट-फूट कर रोने लगी।
बाली को तो आश्चर्य इस बात का था कि किशन इतना सीधा सरल वह यह हिम्मत करेगा, अरे बात तो करता वह, एक ही गांव के, समाज के हैं शादी की जा सकती थी यह क्या कर दिया और शिवकांति कैसे चली गई उसे तो घोर आश्चर्य में डाल दिया दोनों ने।
छटपटाहट और बेज्जती की ऐसी लहर उस आंगन में पसरी कि सब कुछ तहस-नहस हो गया, कुछ देर बाद मौसा ने उठकर बाली का बैग भरकर उसके सामने फेंक दिया, क्रोध की अधिकता में वह सारा कसूर बाली पर उतारने पर आमादा हो गया।
“निकल जा मेरे घर से,”.. उसका एक बाजू पकड़ा और मुख्य द्वार के बाहर धकेल दिया।
मौसी रोकती ही रह गई, फटाक, से दरवाजा बंद कर दिया, बाली हतप्रभ, क्या करें कुछ समझ ही नहीं आ रहा है, कुछ देर चौखट पर बैठा रहा, संयत होकर उसने किशन को फोन लगाया, फोन बंद आ रहा है, कई बार लगाने के बाद उसको भी गुस्सा आने लगा, वह उठा और उसके घर की ओर चल दिया, किशन के घर में भी उसके घर जैसा मातम है, उसकी मां विलाप कर रही है।
“तू बता दे बाली मेरा किशनवा कहाँ गया,”…बाली को देखते ही किशन की मां ने दोनों कंधे पकड़कर झिंझोड़ दिये।
वह यहाँ पता करने आया कि किशन कहाँ है, उल्टा वह उसी से पूछ रहे हैं, रुदन बढ़ता ही जा रहा है, बाली वहाँ से निकल आया।
आज उसे लगा कि दोस्ती के नाम पर किस तरह ठगा गया है वह,भाई बहन की इतनी किरकिरी करवाएगी, सोचकर विश्वास नहीं हो रहा है, शिवकांति की खिलखिलाने की आदत से घर में सभी अभ्यस्त हैं, निर्मल झरने सी उसकी गूंजती हंसी बड़ी मोहक लगती है, अक्सर मौसी टोकती…
“दूसरे घर जाना है, लड़की हो, धीरे हंसा करो,” उसकी धुड़की उस पहाड़ी निझर झरने को कहाँ बांध पाती है, कहीं न कहीं अच्छा तो मौसी को भी लगता ही है, उनके होठों पर हंसी बिखर जाती ।
इतना सुखमय जीवन गुजर रहा है, उसमें यह गाज कहाँ से आ गिरी, गाँव की गली में खड़े होकर बाली सोच रहा किस ओर जाऊँ, घर के दरवाजे तो बंद है, अब क्या करुँगा, वह खेतों की ओर चल दिया, गाँव का हर गुजरने वाला उसको हिराकत भरी नज़र से देख रहा है, छोटा सा गाँव, बात फैलते देर नहीं लगती सोचता वह खेत की मेड़ पर बैठ गया।
खेतों में भी तो यादें बिखरी पड़ी हैं, एक दूसरे के पीछे भागना, चिल्लाना,एक दूसरे पर मिट्टी के ढेले फेंकना, मोटर के चलते ही पानी एक दूसरे पर उछालना, बाल्टी से भिगो देना, कितना कुछ चलचित्र सा बाली की नजरों से गुजर गया, उसने खेत में दूर-दूर तक नजर दौड़ाई काश कहीं से शिवकांति दौड़ती नजर आ जाए।
धूप ने अपना साम्राज्य चारों दिशाओं में फैला लिया है, अब उसकी ऊष्मा का प्रकोप भी बढ़ने लगा, बाली को बैठना दूभर होने लगा, वह खेत के कोने में लगे आम के पेड़ के नीचे चला गया, वहाँ भी उसे लगा कि हर टहनी, पत्ति-पत्ति पूछ रही है कि शिवकांति कहाँ है।
इस आम के पेड़ में तो यादों का पूरा गाँव बसा है, यह तो वह जगह है जहाँ गर्मियों में छुट्टी के सारे दिन इसी के नीचे बीते हैं, मौसा, मौसी खेत में काम करते और हम दोनों रेवती का ध्यान रखते खेलते रहते थे, वही मिट्टी है, वहीं पेड़ लेकिन आज वह अकेला, कुछ सूझ ही नहीं रहा क्या करें क्या न करे, कहाँ जाए, मौसा का गुस्सा शांत होगा तब वह घर जाएगा, इतनी नाराजगी उसने तो कभी देखी ही नहीं, तो डर भी है कि घर में नहीं आने दिया तब।
जैसे-जैसे सूरज ऊपर चढ़ता जा रहा था बाली की बेचैनी और सोचने की क्षमता जवाब देती जा रही है, रात भर का जागा है, उपर से गर्मी ने बेहाल किया हुआ है, दिमाग थक गया तो वही लुढ़क गया, नींद ने न जाने कब तक उसे दबोचे रखा।
उठा तो देखा सूरज मध्यम हो रहा है, अनुमान है चार तो बज ही रहे होंगे, अब भूख भी सताने लगी, नलकूप पर जाकर पानी पिया, सोचा नहा ले फिर घर जाएगा ।
गाँव की गली से निकलते वही महसूस हो रहा है, जो सुबह हो रहा था बोला तो कोई कुछ नहीं लेकिन हाव-भाव दर्शा रहे हैं कि बताओ शिवकांति कहाँ है ? किशन पर आज इतना गुस्सा आ रहा है कि किस घड़ी में उससे दोस्ती कर ली, वह तो उसे कभी घर भी लेकर नहीं आया था, फिर यह सब कैसे, कब हो गया, दोस्ती के नाम पर धब्बा किशन, मन में कड़वाहट ने फन उठाया।
घर के दरवाज़ा यथावत बंद है, कुंडी खडकाई, मौसी को आवाज भी लगाई, लेकिन कोई प्रतिउत्तर नहीं, भीतर मोन ही पसरा रहा, थक कर बैठ गया, क्या करें, क्या न करें, समझ ही नहीं आ रहा।
शाम घिर आई है, मवेशियों के घर वापसी का समय हो गया, घंटियों का स्वर गूँजने लगा है, चरवाहों की हाॅक सुनाई देने लगी, बाली को भूख भी दबोच रही है, वह उठा और हाईवे बस स्टैंड की ओर बढ़ने लगा एक ही रास्ता है अब, कि माता पिता के पास जाये।
खबर तो वहाँ भी पहुँच ही गई थी, हर रिश्तेदार से पूछा जा चुका है कि शिवकांति आई है क्या ? नजदीक ही है बाली के माता-पिता का गाँव आधे घंटे की दूरी पर, वह अपने गाँव के हाईवे पर है, बस उसी समय भाग्य से मिल गई, उसे आज अपने माता-पिता के घर की दूरी बहुत लग रही है ।
“अरे, कैसे हो बाली,”.. पान वाले काका ने देख लिया, बाली को लगा जानबूझकर पूछ रहा हैं ।
“ठीक हूँ,”… कह कर वह तेज-तेज डग भरता घर की ओर बढ़ गया।
शाम पूरी तरह ढल चुकी है, घरों से घंटियों और आरती की आवाज आ रही है, किसी रसोई से तड़का लगाई दाल, सब्जी की खुश्बू हवा में तैर रही है, घर के सामने पहुँच कर देखा, सब कुछ सामान्य चल रहा है।
सब अपने-अपने काम में व्यस्त, रसोई से निकलती रेवती की नजर जैसे ही बाली पर पड़ी वह चिल्ला दी… “भैया, आए हैं,”… दौड़कर पास आ गई।
“भैया, दीदीया कहाँ गई ?”… नस्तर चुभा दिया रेवती ने।
दिनभर का रुका ज्वार फूट पड़ा और वह फूट-फूट कर रोने लगा, तब तक घर के सभी सदस्य एकत्रित हो गये, मां ने ही अंक में भरा तो बाली बेकाबू हो गया,.. मुझे नहीं पता मां,… मुझे नहीं पता… शिवकान्ति कहाँ गई है।”
मां ने अपने आंचल में छुपा लिया,… कोई नहीं बाली, तू चुप हो फिर बताना क्या हुआ, तेरे मौसा का फोन आया था, खूब गुस्से में तुझे ही खूब खरी-खोटी सुना रहा था, तू कहाँ था दिन भर,”… पूछते हुए मां रोने लगी।
रुलाई का ज्वर कम हुआ तो पानी पिलाकर थोड़ा शांत किया, तब बाली ने अपनी दिनभर की बात बता दी ।
“अपनी बेटी, संभाली नहीं गई, मेरे बेटे पर आरोप मढ़ रहे हैं, चिंता मत कर वह दो-चार दिन में लौट आएगी, पता चल जाएगा कहाँ गई है,”…अपने बेटे को कष्ट में देख मां की ममता तड़प उठी गरज पड़ी, मां उसका सर सहलाने लगी।
अब सहम जाने की बारी रेवती की थी वह इतनी छोटी तो थी नहीं कि कुछ जानती न हो या समझती न हो, उस पर उसे भी विश्वास नहीं हो रहा था कि दीदीया ऐसा कुछ कर जाएगी। बाली को संभालते सारा परिवार देर रात तक इसी विषय पर चर्चा करता रहा, एक तरफ बैठी रेवती सुनती रही।
“रेवती, तुझे भी नहीं पता था कि तेरी बहन यह सब कर रही है,”..एक बार मां ने बीच में पूछ भी लिया।
“उसे कहा पता होगा मां, मैं तो घर बाहर आता जाता हूँ, मुझे नहीं पता यह तो घर से कहीं जाती ही नहीं, उसे क्या पता होगा,”… बाली ने झट रेवती को बचा लिया।
देर रात थक कर चूर हुए सभी सोने चले गए। बाली को बहुत देर तक नींद नहीं आई, वह सारी घटनाक्रम पर नजरें दौड़ा रहा है कहाँ चूक हो गई, वह क्यों नहीं समझ पाया कि इस किशन के भीतर क्या उबल रहा है, और जाने क्या-क्या वह बहुत रात तक इसी पर सोचता रहा और थक कर सो गया।
सुबह चिड़ियों की चहचहाहट ने आँखें खोल दी, सुबह की मदिम रोशनी में ठंडी बयार बहुत सुकून दे रही है, घर के सभी सदस्य उठकर अपना-अपना काम करने लगे हैं, उसे उठाया नहीं गया था, बाली उठ कर बैठ गया।
“भैया, पानी,”..रेवती लौटे में पानी ले आई ,उसकी आवाज बहुत ही उदास लगी ।
“रात नींद नहीं आई क्या, इतनी परेशान क्यों है ?”..एक नजर उसपर डाली, बेमक़सद का सवाल बाली ने पूछा।
“कुछ नहीं भैया, चाय बना लाती हूँ,”… कहती वह पलट गई ।
इतनी चंचल रेवती, बुझ सी गई, बहन की इस घटना ने उसे समय से पहले बड़ा कर दिया है क्या, सोचता बाली हाथ मुँह धोने चला गया।
रेवती चाय ले आई,देकर लौटने लगी।
“रेवती कोई बात है क्या बता,” बाली ने धीमे से रेवती से पूछा।
“वह भैया,”..
“हां बोल ना,”….
“तुम किसी से बोलोगे तो नहीं भैया,”…
“नहीं बोलूँगा बता,”…
“मुझे पता था दीदीया, किसन को पसंद करती है,”…
“क्या ?”….बाली के मुँह खुला रह गया ।
“भैया,”….रेवती इधर-उधर बेबसी से देखने लगी।
“तूने, मुझे क्यों नहीं बताया,”..सम्हलकर आवाज को दबाकर बाली बोला ।
“मुझे ही नहीं पता था कि दीदीया यह कर देगी,”… रेवती रुआसी हो गई ।
“अच्छा, अच्छा यह बात किसी से मत कहना समझी,”… बाली ने सावधानी से कहा ।
अब बाली की सोच का रुख बदल गया, उसे लगा इस विषय में वह यहाँ गाँव में आये नये टीचर, जिनसे उसकी मुलाकात पिछली बार हुई थी, उनसे चर्चा करके उसे अच्छा लगा था, बहुत ही सुंदर विचारों के हैं, उनसे मिलता हूँ, इस मुश्किल घड़ी में वही मुझे कुछ सुझाव देंगे।
वह पाठशाला की ओर चल दिया, मास्टर साहब मिल गये, नमस्कार कर हालचाल पूछा, थोड़ी देर में ही बाली अपने मुख्य मुद्दे पर आ गया।
“सर, यह जो कम उम्र में लड़के लड़कियाँ भागते हैं उसका परिणाम क्या होता है क्या वह सदा साथ रह पाते हैं?”…बाली ने पूछा।
“ऐसा है बाली, यह कुदरत की देन है, जो एक उम्र में वह सब देती है, जो इस शरीर के साथ रचा बसा है, फर्क इतना है किसी में यह सह जाने की क्षमता होती है, तो कोई बावले हो जाते हैं, पर कच्ची उम्र की यह घटना ज्यादातर दिनों तक नहीं टिकती, जीवन के अति आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इंसान का अपने पैरों पर खड़ा होना भी आवश्यक है, लेकिन इन बातों का कोई अनुभव तो होता ही नहीं, तो अति रोमांच की स्थिति में सही, गलत की सोच जाती रहती है और ऐसा होना इतना हावी होता है कि नवजवान ऐसी हरकत कर बैठते हैं, बहुत कम होंगे जो इस जंग में ठहर पाते हैं, वरना तो कुछ दिनों में या कहे कि जो थोड़ी बहुत जमा पूंजी वह अपने साथ ले जाते हैं तभी तक बाहर रह सकते हैं इसके बाद भूख और परेशानी प्यार की धज्जियाँ उड़ा देते हैं और अंत में घर लौटना ही एकमात्र विकल्प बचता है,”… सर थोड़ा रुके।
“तो क्या सर, वापस आने पर मां बाप बच्चों को रख लेंगे,”… बेचैन होकर बाली ने पूछा
“लड़कों के मामले में तो यह संभव हो जाता है, लेकिन लड़कियों के लिए हमारा समाज आज भी संवेदनशील है, घर न रखकर लड़की को रिश्तेदारों के घरों में रखा जाता है,”…
“सर, ऐसे मामलों में परिवार तो उस समय की पीढ़ी को भूल नहीं पाता होगा,”.. शंका कुशंका से घिरा बाली पूछ बैठा।
“हां हमारे समाज का ढांचा ही इस तरह का बन गया है, तुम क्यों परेशान हो रहे हो, तुम कभी ऐसा मत करना, परिवार की सहमति से रिश्तों की मजबूती का और जीवन को सुख में बिताने का आनंद ही कुछ और होता है,”.. कहते हुए सर ने बाली के कंधे पर हाथ रख दिया।
“धन्यवाद सर, आपका बहुत समय ले लिया, आज आपने मुझे जिंदगी के बहुत ही गूढ़ रहस्य से अवगत कराया है, मैं अपनी जिंदगी में हमेशा यह आपका दी हुई सीख को ध्यान में रखूँगा, अब चलता हूँ, नमस्कार सर,”… कहता बाली घर की ओर निकल गया।
इतना सुनने के बाद बाली को तो सूझ ही नहीं रहा है कि उसकी जिंदगी में इतनी उथल-पुथल क्यों कर हो गई, उसका कसूर क्या है, बचपन में मां बाप से दूर रहा, अब उस घर से निकाल दिया गया जहाँ वह दिल को यह समझाता रहाता है कि तमाम उम्र उसे यहीं रहना है। बहुत तर्क कुतर्क होते रहते लेकिन मौसा, मौसी के व्यवहार से फिर सब ठीक हो जाता है लेकिन इस बार तो उन्होंने मुझे ही पीट दिया, मेरा कसूर इतना है कि मैं उस लड़के को जानता हूँ, बहुत गहरा दोस्त भी नहीं है, गाँव में हम उम्र एक, दो लड़कों से ही बोलचाल है।
वह सुबह काम पर निकल जाता है, शाम को आता, मुलाकात रात की ड्यूटी होने पर दिन में यदा-कदा ही मुलाकात हो पाती है, इसमें उससे कहा चूक हो गई, ऐसा क्या हो गया कि शिवकांति ने ऐसा कदम उठा लिया। शिवकान्ति, मौसा से बात करती, उससे कहती, कोई हल तो निकल ही आता।
आज ऐसा लग रहा है कि सारे के सारे रिश्तों ने मिलकर उसे ठगा है । कितना विचित्र है न यह जीवन, एक पल में सब कुछ बिखर गया, क्या से क्या हो गया, सोच की आँधी में बाली का तिनका-तिनका बिखर गया, किस पर एतबार करें, क्यों करें, क्या इतना संभल कर रहना भी घातक हो गया, जहाँ सदा यह सोच रही कि कभी उससे कोई भूल न हो जाए, कई बार तो वह अपने मन की बात भी दवा जाता है, कहे या नहीं कहे, कितनी कशमकश भरी है उसकी जिंदगी, बिना कुछ किये ही वह इतना कुछ हो गया, सारा दोष उस पर मढ़ दिया गया, एक लंबी सांस खींचकर वह घर के अंदर प्रवेश कर गया।
सभी खामोशी से अपने-अपने काम में मसगूल होने का प्रयास करने मैं लगे हैं, जैसे उससे मुँह छुपा रहे हो, उसे लगने लगा कि कहीं न कहीं मां पिता,भाई बहन भी उसी का दोष मान रहे हैं।
“कहाँ गया था बेटा सुबह की चाय तो पी लेता, बाली, जा मुँह हाथ धो, चाय पी ले,”.. मां कमरे से निकलते हुए बोली, मां ने उसकी पेशानी पर चिंता की रेखाएँ देख ली है।
बाली खाट पर बैठा तो रेवती सहमी सी चाय ले आई, याचना भरी दृष्टि से देखते हुए पूछा… “भैया अब क्या होगा।”
“पता नहीं, तू परेशान मत हो,”.. कहता बाली चाय का प्याला थाम लेता है।
“दीदीया ठीक होगी भैया,”… रुआंसी हो आई रेवती।
“हा ठीक ही होगी, अपनी मर्जी से गई है तो ठीक ही होगी,”… न चाहते हुए भी बाली का स्वर कड़वा हो गया।
उसकी मानसिक हालत ऐसी नहीं है कि वह कुछ भी अच्छा या बुरा सोच पाए, वह तो अपनी भूमिका को ही सही ढंग से नहीं समझ पा रहा है।
आठ दिनों बाद खबर आई ..”शिवकांति, वापस आ गई है, रेवती को भेज दो।
” खुद आकर अपनी बेटी ले जाओ,”..मां ने भी संदेश भेजवा दिया।
मौसी,मौसा, शिवकांति आए, आँगन में खाट पर विराजमान, शिवकांति जरूर रेवती के साथ अन्दर कमरे में हैं, उसके चेहरे पर झेप के साथ डर भी झलक रहा है।
“आगे क्या सोचा है आपने,” बाली के पिता ने पूछा।
“अभी तो इसे यही छोड़ जाता हूँ कुछ दिन आप रखो, समय गुजर जाएगा तो कहीं शादी कर देंगे,”.. मौसा बोला।
“नहीं जीजासा, आप शिवकांति को कहीं और रखो, हम नहीं रखेंगे,”… मां तपाक से बोली।
“अरे कहाँ रखूँ, आप लोगों के अलावा कौन रखेगा, मैं तो यही सोच कर इसे साथ लाई हूँ,”.. मौसी रुआंसी हो गई ।
“क्यों जीजी, तुमने अपने लड़के बाली को घर से निकाल दिया, उसी को दोष दिया, फिर हम कैसे ओर क्यों रखें, मैंने तो बचपन में ही बाली को तुम्हें यह सोचकर सौंपा था कि तुम्हें बेटे की कमी न खले, लेकिन तुमने तो उस पर ही दोष मढ़ दिया, खुद का बेटा होता तो क्या घर से निकाल देती, दोष किसका है और सजा बाली को क्यों मिली?”.. मां जार जार रो दी।
“ऐसा नहीं है, छोटी, मैं खुद आपा खो बैठा था, सूझ ही नहीं रहा था क्या करूं,”.. मौसा बोला।
“ऐसा है जीजासा, जब मन में यह बैठा ही है कि यह दूसरे का बेटा है, तभी आप उसे घर से निकाल सके, अपने उसे स्वीकारा ही कब है, मेरे बेटे का बचपन मेरी आँखों से दूर हो गया, भरपूर प्यार भी नहीं दे पाई उसे, वह खुद किस स्थिति में है आज सोचा है आपने,”…मां बाली के उतरे मुँह को निहारने लगी ।
“अब इस बात की इतनी बड़ी सजा मत दो, इतने बर्षो से हम सामंजस्य बैठाकर, परिवारों में सुख शांति और खुशहाली रखे हैं तो इस माहौल को क्यों बिगाड़े, बोलो तो,”.. मौसा बोला।
“हां ठीक कहते हो, कुछ समय बाद सब का गुस्सा कम हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा,”..बाली के पिता ने स्थिति संभालने की कोशिश की।
घंटों चर्चा चलती रही, खाना पीना हुआ, लेकिन एक बार भी शिवकांति बाली से मिलने नहीं आई। बाली की हिम्मत भी नहीं हुई कि उससे जाकर मिले, क्या करेगा मिलकर, क्या कहेगा, क्या पूछेगा, जो होना था, वह तो घट गया, मन ही नहीं हो रहा बाली का कि इन सब के बीच बैठे, वह उठा और मुख्य द्वार से होते हुए बाहर सड़क पर निकल आया।
अब उसे सोचना है कि उसे अपनी जिंदगी की डोर खुद संभालनी है या फिर किसी के हाथों में दे देनी है, बहुत देर सड़कों पर चक्कर लगाते हुए, एक जगह सड़क किनारे लगी सीमेंट की बेंच पर बैठ गया, उसका अपना भविष्य क्या है, नौकरी तो चली ही गई, अब नये सिरे से फिर काम तलाशना और जीवन को पुनः दूसरों के अनुसार बनाने के लिए संघर्षरत होना पड़ेगा।
तभी हार्न बजाती बस आ गई, तो तंद्रा टूटी, क्यों न आज से ही अपनी जिंदगी के फैसला लिया जाए, सोचता वह उठा, बस सामने आकर रुकी, सवारिया उतर रही है,
“कहाँ जा रहा है बाली,”.. घर के पड़ोसी काका उतरे तो उन्होंने पूछ लिया।
“काम की तलाश में जा रहा हूँ काका, आप पिताजी को बता देना, मैं काम मिलने और कहाँ रह रहा हूँ इसकी सूचना दे दूँगा, याद से बता देना काका,”… बाली बस पर चढ़ते हुए बोला।
“हां हां बिटवा जा,”… काका गाँव की ओर बढ़ते कह गये।
बाली बस की सीट पर बैठा, एक नजर गाँव पर डाली, ठंडी सांस ली, घर पर अभी भी बहस चल रही होगी, जिसका कोई नतीजा नहीं निकलना है, अब वह किसी के हाथ की कठपुतली नहीं बनेगा, अपना जीवन अपने अनुसार बिताएगा, सोचता वह चलती बस से गाँव को दूर होते देखता रहा, यादों ने आँखों में पानी छिड़का तो अपनी कमीज की बाह से उन्हें परे धकेलकर आगे सड़क देखने लगा, जहाँ से होकर उसकी बस गुजरेगी और वह अपनी आगे की जिंदगी का हमसफर खुद होगा।
अंजना छलोत्रे ‘सवि’
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