बोलो_क्या_तुम_बोल_रहे_हो?
बोलो_क्या_तुम_बोल_रहे_हो?
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साँझ- सुबेरे झिलमिल- झिलमिल,
सुधियो का पट खोल रहे हो!
बोलो ! क्या तुम बोल रहे हो?
रात जागती, राह ताकती,
नैनन नीर भरे रहते।
आशाएं अवलेप लगातीं,
फिर भी घाव हरे रहते।
छोड़ गये जब नहीं है आना,
सपनों में क्यों डोल रहे हो!
बोलो! क्या तुम बोल रहे हो?
छोड़ गए मन व्यथित न होता,
कारण यदि बतला जाते।
मिथ्या ही पर नजर बचाकर,
प्रेम तनिक जतला जाते।
तुरपाई बन्धन का बोलो,
अब काहे तुम खोल रहे हो!
बोलो! क्या तुम बोल रहे हो?
अरमानों की सजा के डोली,
,पिया; तुम्हारे घर आई।
तब तुमने भी कहा हृदय से,
मन को मेरे तुम भायी।
फिर ऐसी क्या आई विपदा ,
प्रीति परायी मोल रहे हो!
बोलो! क्या तुम बोल रहे हो?
अँसुवन की गंगा बहती है,
छोड़ भी बह जाने दो।
आता है विप्लव जीवन में,
अभिनन्दन बस आने दो।
प्रीति किया मीरा से बढ़कर,
जब उसको तुम तोल रहे हो!
बोलो! क्या तुम बोल रहे हो??
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’