बोली : भाषा का श्रृंगार
शीर्षक- बोली : भाषा का श्रृंगार
विधा- छंदमुक्त काव्य
संक्षिप्त परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राजस्थान।
मो. 9001321438
प्राचीनता में झाँक के देखो,
मेरा क्या इतिहास बना ?
साक्षी रहीं मैं युगों-युगों की,
मेरी समरसता से राष्ट्र बना।
अखण्ड भारतवर्ष में,अपना परचम लहराया है।
कालान्तर में क्यों भाषावाद गहराया है ?
अंगज अपने ही,बना करते उत्तराधिकारी है।
तो मेरी बोली भाषा को, बनाते क्यों अनधिकारी है।
कुटुम्ब विशाल हुआ करता है,
नायक होता एक है।
मेरे कुटुम्ब का नायक हिन्दी,
बोली इसकी अनेक है।
बिन सहायक के नायक का अपना कोई वजूद नहीं।
बिन बोली के अपनी हिन्दी का भी कोई वजूद नहीं।।
मैदान-ए-जंग में बिन सेना,योद्घा जाया करते हार है।
बिन बोली के भाषा का भी,हो जाया करता संहार है।
दासता अब की नहीं, आपके पुरखों को मैनें देखा है।
उनकी आँखों के आगे,अंग्रेजों ने मेरी छाती पर
खिंची एक रेखा है।।
लक्ष्मण रेखा तो थी नहीं,
जो पार नहीं सकती थी।
भाषा-योद्धा लड़ते रहे,क्या बनी थी तीर कोई ?
जो उनकी कलमों के पार हो सकती थी।।
शक,हूण,यवन,कुसाण और मुगल भी यहाँ आये थे।
कूटनीति और फूट डालो,
लेकर अंग्रेज भी यहाँ आये थे।
सिवा फिरंगी लाटो के,
प्रहार न कर पाये भाषा पर।
सभ्य,ज्ञान,विज्ञान के नाम पर,
परजीवी बनाया अन्य भाषा पर।।
जेठी बेटी बनी राजस्थानी,
मेरी हिन्दी की है ये गौरव।
हिन्दी के आदिकाल में,
इसी में गूँज उठें तलवारों के कलरव।।
कौन कर सकता इसे अलग,
जगाई इसी ने थी अलख।
बचाने राष्ट्र को खनक उठी थी
तलवारें राजस्थान की।
हिन्दी की प्यारी जेठी-बेटी,
बोली राजस्थान की।
बिन बोली के हिन्दी का,
अपना शब्द-भण्डार कहाँ ?
जिस भाषा की जितनी बोली,
उतना ही शब्द-भण्डार वहाँ।
मेरी सांस्कृतिक धरोहर और ज्ञान पर,
प्रश्न चिह्न लगाने वाले अंग्रेजी प्यादे।
अपनी विरासत,अपनी भाषा
और बनी रहेगी वो यादे।
प्यार वफा की कुछ बातें,
निभते रहेंगे कसमें-वादे।
जन-जन की है ये प्यारी,
बनी रहेगी जग में ये बिन लादे।
बिन अपनी जन भाषा के, पनप सकता राष्ट्रवाद नहीं।
पराये देश की भाषा में,अपना कोई संवाद नहीं।।
खड़ा होता है देश,निज भाषा-बोली के ज्ञान से।
भाषा हिन्दी,बोली राजस्थानी,
कहेंगे हम तो ये शान से।
मेरी समृद्धि पर कुडंली मारे,बैठा अँग्रेजी साँप है।
सिखाया मैनें विश्व को,उठें दूसरों की बलि पर,
अरे! ये बड़ा पाप है।।
राष्ट्रभाषा न बन पायी,कुछ अंग्रेजी प्यादों से।
राजभाषा बनी,पर सम्मान न पाया,
तेरे गलत इरादों से।
जन रूचि होगी तुझमें,जन भाषा न बन सकेगी।
मेरी बढ़ती आबादी को,क्या तू रोक सकेगी।।
क्या समझूँ तुझको देश भक्त,ओ अंग्रेजी मुजरिम ?
राजनीति के फन्दों में,सत्ता के गलियारों में।
नहीं फँसेगी हिन्दी मेरी,इन परदेशी दिवानों में।।
नारी सजती सोलह श्रृंगार से,
मैं सजती अठारह श्रृंगार से।
और परदेशी अंग्रेजी बाबू,किस नजर से देखूँ तुझको!
मेरी विविधता के रंगों को,एक नजर देख मुझकों।।