बोझ
वो जिन्हें तुम जानते हो
वो जिनसे तुम मिलते हो
वो भी अपने साथ ढोये हुए हैं
बोझ वो अपने साथ खींचते हुए
जहाँ से लड़ते हुए
जहाँ से इसके लिए लड़ते हुए
उनका हिस्सा भी है ये बोझ
जिस पर उनका बस भी नहीं
जिसे वो बदल न सकें
वो ऐसे ही हैं, बस ऐसे ही
वो बचना चाहें, वो झुकना चाहें
वो उसे दरकिनार करना चाहें
पर थक हार जाएं
रातों को जो उन्हें जगाये
रातों को जो नींद उड़ाये
साँसों को बोझिल कर जाये
आँखों को भिगाता जाये बोझ वो
ये लोग बुरा बनना ना चाहें
फिर भी खुद को बचा न पाएं
दूर भाग कर जाएं भी तो कहाँ जाएं
पहचान से इंकार कर जाएं
आँखें बंद कर लें वो
सोचे जग अँधा हुआ
आंखों में डाल आँखें
एक लकीर से खिंच दे
दर्द की वापसी की
जड़ों को ना सींचने दे
सांसें ले खुलकर
उस बोझ को उतार कर
खुले आसमान के तले
बेधड़क, आज़ाद
–प्रतीक