#बैरी कैसे-कैसे मेरे राम जी !
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🔥 #बैरी कैसे कैसे मेरे राम जी ! 🔥
अपने अक्ष पर घूमती निरंतर गतिमान गेंद जैसे आकार वाली किसी वस्तु की दिशाएं निर्धारित हो सकती हैं भला?
परंतु, ऐसा हुआ है। और इस विधि हुआ है कि समूचा विश्व मन से स्वीकार करता है।
यहाँ बात है अपनी धरती की। जी हाँ, धरती अपने अक्ष पर घूमती हुई निरंतर सूर्य की परिक्रमा किया करती है। तब भी इसकी दिशाओं का इस प्रकार निर्धारण हुआ है कि जहाँ संस्कृति व धर्म सर्वप्रथम उदित हुए उसे पूर्व दिशा मान लिया गया।
और यह इतनी सुदृढ़ मान्यता है कि भारत से पूर्व की ओर जापान जैसे देशों को सुदूरपूर्व कहा गया और कहा जाता है।
परंतु, दितिपुत्रों का बीजनाश तो कभी हुआ नहीं। वे प्रत्येक युग में थे, और हैं।
धरती के इस भूभाग को जिसे भारत कहा गया, जिसे धरती की पूर्व दिशा स्वीकार किया गया इसके बैरी भी यहीं जनमे हैं। वे इस देश की संस्कृति धर्म व परंपराओं पर ऐसी चोट लगाया करते हैं कि न रोते बने न हंसते।
ऐसे देश भी हैं इस धरती पर कि जिनके एक प्रदेश में एक वस्तु उपजती है व अन्य प्रदेशों में दूसरी किन्हीं वस्तुओं का उत्पादन होता है। उन लोगों ने अपनी सुविधा के लिए बड़े-बड़े हाट खोल रखे हैं जिन्हें वे ‘मॉल’ पुकारा करते हैं। परंतु, भारत में ऐसी स्थिति नहीं है। यहां लगभग सभी प्रदेशों में सभी जीवनोपयोगी वस्तुओं का न्यून अथवा अधिक उत्पादन होता है। अतः यहां पर ऐसे बड़े हाट अथवा ‘मॉल’ छोटी हट्टियों अथवा दुकानों की सांस में फांस बनकर खटका करते हैं।
धर्म संस्कृति समाज के बैरी यहीं नहीं रुकते। वे येनकेन प्रकारेण जड़ खोदने में लगे हैं।
भारत की संस्कृति व परंपराओं का सौंदर्य देखिए कि जिनके पास प्रचुर मात्रा में धन है वे लोग हाट-बाजार में हट्टी अथवा दुकान बनाकर बैठ जाते हैं। जिनके पास धन की न्यूनता है वे रेहड़ी बनाकर गली-गली घूमा करते हैं। और जो इतना भी नहीं कर पाते वे खोंचा अथवा छाबड़ी सिर पर उठाए अपने परिवार की पालना किया करते हैं। जो लोग इनसे भी नीचे हैं। गली-गली घूमने की सामर्थ्य जिनमें नहीं है वे एक स्थान पर फड़ी अथवा फड़ लगाकर बैठ जाते हैं। उनके परिवार को भी दाना-पानी मिल ही जाता है।
अब हुआ यह कि कुछ रेहड़ीवालों ने रेहड़ी को ही दुकान बना लिया। जिसका पहला स्वाभाविक परिणाम यह निकला कि यातायात में बाधा उत्पन्न होने लगी। दूजा, जहां-जहां रेहड़ियां दुकान हो गईं वहां-वहां सफाई व्यवस्था का ह्रास होने लगा। तीजे, दुकान खोलकर जो बैठे थे उनके धंधे को अवांछित चोट पहुंचने लगी। और, स्थानीय प्रशासन को दुकानों से जो कर आदि मिला करते हैं उनमें भी ऐसा खोट आ गया कि विकासकार्यों की गति धीमी होती गई।
धर्म संस्कृति देश समाज परंपराओं को वास्तविक आघात तब लगा जब कुछ बौने लोगों ने इसका समाधान खोजा।
बुद्धि के बैरियों ने सभी रेहड़ीवालों, खोंचेवालों, फड़ीवालों आदि-आदि को एक स्थान पर इकट्ठा कर दिया। और उस स्थान को नाम दे दिया “वैंडिंग ज़ोन”।
यह रेहड़ीवाले, खोंचेवाले अथवा फेरीवाले अधिकतर ऐसा सामान बेचा करते हैं जिसका दीर्घ अवधि तक भंडारण करना संभव नहीं। और दूजे, उनके पास ऐसा सामान भी मिलता है जो विभिन्न कारणों से दुकानदार नहीं रखते। जब रेहड़ीवाले गली-गली घूमा करते हैं तब गृहणियां अपने दैनिक कार्यों की व्यस्तता के बीच ही उनसे ऐच्छिक वस्तुएं ले लिया करती हैं।
अब ?
किसी को दो टमाटर चाहिए अथवा तीन-चार हरी मिर्च अथवा कुछ पत्ते हरा धनिया, कोई पानीपूरी का स्वाद चखना चाहे अथवा किसी के स्नानागार में नहाने का मग टूट गया है . . . बलिहारी बुद्धि के बैरियों की, उन्हें “वैंडिंग ज़ोन” ही जाना पड़ेगा।
देश भारत के अधिकांश नगरों में बुद्धि के बैरियों की मानसिक दासता के प्रतीक ‘मॉल’ और “वैंडिंग ज़ोन” पसरते जा रहे हैं।
राम जी, दया करना !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२