बे-मोल बिके
एक बूंद छलक पलकों से आई,
मैंने उसे वफ़ा माना।
जिसको पूजा दिलने मेरे ,
मैंने उसे खुदा माना।
भेद क्या होता गैरों में,
अब तक न मैंने जाना,
हर आंख से आंसू पूंछा है,
जो मिला उसे अपना मना।
बस अफ़सोस रहा दिल में,
जब वक्त पड़ा मुह मोड़ खड़े थे,
रिस्ते नाते तोड़ खड़े थे।
जब पहुचा मैं सम्मुख उनके,
वह दोनों हाथ जोड़ खड़े थे।
बोलो अब तक किया जो तुमने,
पर अब आगे कुछ मत करना।
हम जियें जैसे कष्टों में पर,
अपनी आंखों मत भरना।
तब छाले फूटे और ज़ख्म रिशे
जिनमे चेहरे सब अपनो के दिखे।
क्या कुछ मोल बफा का होता है?
कुछ हो? तो यारो बतला देना,
हम तो यहां बे-मोल बिके हैं।
सर्वाधिकार सुरक्षित 08/08/2018 स्व-रचित कविता द्वारा ,,राजेन्द्र सिंह,,