बे-फ़िक्र ज़िंदगानी
किसी को हमारी फ़िक्र नहीं ,
हम सबकी फ़िक्र क्यों करें ?
सब अपने में ही मस्त हैं हम भी ,
अपने में ही क्यों ना मस्त रहें ?
हर शख़्स की अपनी-अपनी अलग दुनिया है ,
दर्द -मंद रिश्तो के निबाह की अब सिर्फ कहानियाँ है,
इस जमाने में हमदर्द ढूंढे नहीं मिलते ,
दूसरों के हाल पर लोग तमाशा हैं देखते ,
दौलत-ओ – शोहरत की अना में डूबा ,
मौक़ा’- परस्त ये ज़माना है ,
फ़रेब- दहिंदा अपनी ख़ुदी से
हारा ये ज़माना है ।