बेहोश अवस्था
तुम जी रहे हो,
पर कैसे !
धक्के खा खाकर,
या धोखे खाकर.
डर डरकर.
या किसी की बतलाई,
घडी से बंधकर.
या किसी ग्रंथ की,
संजीवनी पाकर.
निसर्ग की शिखा तो,
नजर नहीं आती.
हिंसा परवान चढ़ी है,
प्रेम विलुप्त है.
आदमी छुब्ध है.
किस काम के,
ये इकट्ठा किये पत्थर,
जीवन की संरचना नहीं.
मानवीय मूल्य संवेदना
सहयोग प्रेम प्रतीति नहीं,
एक मूर्ति घढी हुई,
कुछ गोल पत्थर.
किस काम के ठाकुर जी,
सब बेहोशी के आलम हैं.
गिर गिरकर सिखना बाकी.
अनुभव नहीं तो बची बेहोशी.