“गुस्ताख़ हो गये “
“खामोश है शहर मुझे आरज़ू है गुफ़्तगू की,
गुम से है सभी कोई कुछ बोलता नही,
उमरे दराज़ है चार दिन के बस,
उल्फते गम की ज़ंजीर कोई तोड़ता नही,
निगाहें मेरी उठी गुस्ताख हो गयीं,
झुकीं निगाहें फ़िर मुझे ही देखते थे सब,
वाह -वाह नही करो मगर लफज़ो को तुम समझो,
तजुर्बे हैं जो फ़न -ए इश्क में कामील है अब,
आखों की चमक मेरे पलकों की शान है,
चेहरे की हँसी,लबों की मुस्कान है,
हर पल धड़कता है दिल किसी की आरज़ू में,
साँसें हमारी वो हमारी जान हैं,
मुद्दतों से मिलन की ख्वाहिश थीं,
जब वो मिलने को आ रहे थे,
खुशी ऐसी की हम सब कुछ भुला दिए,
राहें रोशन बनाने को उनकी,
हम अपना घर जला दिए,
गम -ए निजात से शकुन है मुझको,
तेरी बाँहों के दरमिया आशियाँ सजा लिए,
पत्ते से नही है जो हवाऐं उड़ा ले,
मोहब्बत को अपनी चट्टान सी बना दिए,
दौलत में उलझे हैं नफ़रत में जकड़े हैं,
इश्क के तख़्तों ताज कोई देखता नही,
बंद पिंजरों के परिंदे भूल जाते है,
उड़ा जो तोड़ पिंजरे को,कभी वो पंछी भूलता नहीं “