*बेसहारा बचपन*
ज़िंदगी कट रही है
सड़क पर उनकी
लगता है रूठ गई है
क़िस्मत भी उनकी
सुनता नहीं ये ख़ुदा
इबादत भी उनकी
देखकर दुख होता है
हालत ये उनकी
किताबों से नाता नहीं कोई
नहीं स्कूल क़िस्मत में उनकी
किताबों की कोई कीमत नहीं
बेचता है वो रद्दी भी उनकी
मेहनत करते हैं खेलने की उम्र में
ज़िंदगी कटती है धूप में उनकी
झेलते हैं न जाने कितने कष्ट लेकिन
दिखती नहीं शिकन रूप में उनकी
मासूम चेहरे पर धूप का पहरा
क़िस्मत में है पसीना उनकी
सिग्नल पर गाड़ी रुकते ही
बढ़ जाती है उम्मीद उनकी
कोई खरीद ले ये पेन उनसे
इसी से होगी कमाई उनकी
खा पाएं वो भी भर पेट भोजन
बस इतनी सी है ख्वाइश उनकी
कोई छोटू कहता है कोई अबे इधर आ
यही बन गई है पहचान उनकी
डरे सहमे से काम करते हैं ढाबे पर
कहीं निकल न जाए कोई गलती उनकी
है जीवन मुश्किलों से भरा उनका
संघर्ष ही है तकदीर उनकी
बदलेगी एक दिन तकदीर भी उनकी
है जीवन से बस यही उम्मीद उनकी।