बेरंग होते रंग
रचना नंबर (10)
बेरंग होते रंग
छंदमुक्त रचना
जन्म से मिलता जो प्यारा गुलाबी रंग
असमानी रंग आने से धुंधलाने लगता
अधिकारों पर कर्तव्य हावी होने लगते
भूल जाती अब गुड़िया हक़ का प्यार
वार देती है भय्यू पर सारा लाड़-दुलार
आंचल में सपने संजोए पी-घर आती
कड़छुल बन जाती दाल हिलाने को
वार-त्योहार पर ही ओढ़ती चुनरिया
फ़िर बरसों सन्दूक में ही रखी रहती
समा जाता लाल रंग काल के ग्रास में
पेट भरती है बचा-खुचा खाकर सदा
सबको खिला कर गर्म घी वाले फुलके
और सुनना पड़ता बीमार होने पर उसे
क्यों नहीं करती हो समय पर भोजन ?
गुलाबी काया पर चढ़ जाता है पीत रंग
राय तो ली जाती उससे हरेक मुद्दे पर
नहीं मिलता अगर मनचाहा परिणाम
कोसा जाता है उसे बेवकूफ़ कह कर
हां, सफ़लता का सेहरा खुद बाँध लेते
बचता चेहरे पर निराशा का स्याह रंग
अपनी रुचियों को छुपा कर दराज में
घर की रंगीनियों को ताज़गी देती वह
टूटी कूची,सूखे रंगों को धूप दिखा कर
भूलती आँगन में उतरे सुर्ख सूरज को
अमावस कभी पूनम में नहीं बदलती
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर