बेरंग हकीकत और ख्वाब
बेरंग हक़ीक़त को कभी ख़्वाब नहीं देखा
आँखों ने कभी चाँद का माहताब नहीं देखा
कहने को बहुत कुछ है मगर कह नहीं पाता
दिल की ये बातें कभी लिखताब नहीं देखा
राहों में जो कांटे थे सभी चुपचाप सह लिए
जिनमें भी बसा दर्द का हिसाब नहीं देखा
वो आँखें जो सच्चाई से हमेशा डरती थीं
उन आँखों ने कभी सच का इंक़लाब नहीं देखा
दिल के किसी कोने में दबे हैं राज़ हज़ार
किसी ने कभी ये बंद किताब नहीं देखा
जिन्हें अपने सपनों में बसाना था एक दिन
उन रास्तों का फिर मैंने हिसाब नहीं देखा
खामोशी से चलते रहे हैं अपने सफर में
पीछे मुड़कर हमने कभी सराब नहीं देखा
वक़्त ने दिखाया है हमें हर एक चेहरा
पर सच को कभी हमने नक़ाब नहीं देखा