बेबसी
बेबसी के आग में जलता हुआ यूं छोड़कर।
वो चल दिए हैं बेखबर, बेवजह मुंह मोड़कर।
छोड़िए क्या आप भी, कहते हो कुछ कुछ सोचकर
सच कहूं तो टीस पहुंची निज हृदय को नोचकर।
हर वक्त पर हूं मैं गलत तो क्या करूं और कब करूं?
इस प्रश्न का अब हल मिला है स्वयं को यूं तोड़कर।
दे ना पाया प्रेम तुझको और कोई अधिकार भी।
नीच हूं बेहूदगी से व्याप्त है चीत्कार भी।
दाग देते जा रहा हूं भाल पर पुरुषार्थ के।
अभिशाप हूं ,बन कर कलंक प्रेम के चरितार्थ पे।
जो कहो कह लो तुम्हारी जो भी दिल बात हो।
एक को बस शेष रख ताकि पुनः मुलाकात हो।
यह मिलन होगा मधुर संगीत के समावेश से।
राग मृत्यु गाएगी हां काल के आदेश से।
धमनियों में जो रुधिर है वो मिलेगी ठोस बन।
मृत्यु तब नव कृत्य होगी हठ हृदय के होश बन।
लोग रोएंगे मगर तुम तो कभी रोना नहीं।
अश्क बनकर मैं बसूंगा नेत्र से खोना नहीं।
जब तुम्हें आभास होगा प्रेम था निश्छल मेरा।
था समर्पित मैं तुझे और हां पल पल मेरा।
गीत में हर पल लिखा हर हर्फ में गाया तुझे।
जान कर सम्मान खोया छानकर पाया तुझे।
अश्क के कतरों से कहकर मैं लिखा अभिशाप हूं।
मैं पुरुष हूं युग युगों तक आप में संताप हूं।
मैं गलत हर वक्त हूं हर रंग में हर रूप में।
कब सही था छांव में या कब सही था धूप में।
हर प्रश्न का उत्तर है किंतु फिर भी देखो चुप हूं।
तुम सती सीते मैं पत्थर राम का स्वरूप हूं।
मैं तेरी हर एक गलती को बताता गर चलूं।
तुमने जैसे है सताया मैं सताता गर चलूं।
लोग कोसेंगे मुझे कुकृत्य से हां जोड़कर ।
है भला सिधार जाऊं तुझको अकेला छोड़कर।
हर वक्त पर हूं मैं गलत तो क्या करूं और कब करूं?
इस प्रश्न का अब हल मिला है स्वयं को यूं तोड़कर।
लो सात जन्मों ले लिए अवधार कर मैं जा रहा हूं।
प्रीत को अमरत्व का हां सार कर मैं जा रहा हूं।
कवि दीपक झा रुद्रा ❤️?