बेनाम राहें
उम्र भर भटकना पडता है बेनाम राहों पर ,
तब कहीं जाकर मिलती है रहगुज़र ।
सीना पडता है चाक -दामन अपने ही ज़ख्मों से ,
तभी जाकर होता है आहों में असर ।
मंजिल की तलब है तो काँटों से क्या डरना ,
अपना खून-ऐ-जिगर दिखलायेगा डगर ।