बेटों की बात
बेटों की बातें
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चलो आज बेटों
पर लिखते हैं
उनके कमरे को
देखते हैं…..
सुना है…..
आवारा है
निखट्टू है
पढ़ता नहीं
बस, खेलता है
हां, कभी कभी
किताबों में झांकता है।।
हां, उसकी अलग
दुनिया है…
ढूंढने बैठो तो
कमियां ही कमियां हैं।
घर में बिटिया भी है…
कितनी पास…
सबकी लाडली
देखना….एक दिन…
यही नाम रोशन करेगी..
भाई सुनता और सो जाता
किताबों के बीच
अपने सपनों के बीच..
लिंग भेद को हम घरों
तक ले आए….
एक कोख से जन्मे बच्चे
लक्ष्मण रेखा लांघ आए।
किताबों में सिर
लैपटाप सामने
कश्मकश भरी जिंदगी
दुलार/ पुचकार/ उलाहने
आशाएं/ संभावनाएं
करियर की चिंताएं
सब कुछ सीने पर
एक जलता दीपक…
दिवाली की तलाश।।
दुर्भाग्य…!!!
मैं किसी शहर/ प्रदेश
का बेटा क्यों नहीं..?
खबरों/नजरों में….
एक कोने में होता है बेटा
छायी रहती हैं बेटियां…
बेटा, एक कोने में
प्रेमचंद/ दिनकर/ निराला
को ढूंढता है…..
अपने से ही पूछता है…
वो भी बेटे थे
मैं भी बेटा हूं।।
वो पुरस्कृत तो
मैं तिरस्कृत क्यों ??
क्या बेटा होना
गुनाह है या फिर
हमारी सोच का
इम्तहां है।।
मैं भी बेटा हूं
मुझे भी प्यार चाहिए।।
-सूर्यकांत