बेटी
? बेटी ?
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चहका करती हैं बुलबुल सी , बेटी घर के आँगन में ।
ये पुरवैया ब्यार सरीखी , जैसे बहती सावन में ।।
चलें पेट में आरी इन पर , कोई तरस न खाये रे ,
सोचूँ तो ये पीड़ा मन की , आँसू बन बह जाये रे ,
कली नहीं तो फूल न होंगे , डाली सूनी बागन में ।
ये पुरवैया …..
इनके बिन संसार न चलता , ये जग की आधारा हैं ,
शक्ति स्वरूपा दिव्य रूप हैं , ये देवी साकारा हैं ,
ये ही बरसें घटा सरीखी , ज्यों रँग बरसे फागन में ।
ये पुरवैया …..
पालो पोसो इन्हें पढ़ाओ , फूलों सी मुस्कायेंगी ,
बाबुल का घर छोड़ एक दिन , चिड़िया सी उड़ जायेंगी ,
रोशन नाम करेंगी कुल का , खुशी भरेंगी दामन में ।
ये पुरवैया …..
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-महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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