बेटी का दर्द
संगीता दो दिन से परेशान और तनाव में है । दो महीने पहले तो उसकी शादी हुई थी और आज वह मायके आयी है ।
मान्या ने जो भी बताया उससे संगीता का मुँह कलेजे कलेजे को आ गया ।
संगीता ने निश्चय किया आगे वह मान्या का शौषण नहीं होने देगी । साथ ही उसने संकल्प लिया
” मैं नहीं सिखा पाऊँगी अपनी बेटी को बर्दाश्त करना एक ऐसे आदमी को जो उसका सम्मान न कर सके।
कैसे सिखाए कोई माँ अपनी फूल सी बच्ची को कि पति की मार खाना सौभाग्य की बात है? कह कर सहनशील बनाएंगी ।
हाँ, मैं बेटी का घर बिगाड़ने वाली बुरी माँ हूँ, ………
लेकिन नहीं देख पाऊँगी उसको दहेज के लिए बेगुनाह सा लालच की आग में जलते हुए।
मैं विदा कर के भूल नहीं पाऊँगी और हक से उसका कुशल पूछने उसके घर आऊँगी। हर बुरी नज़र से, उसको बचाऊँगी।
बिटिया को मैं विरोध करना सिखाऊँगी।
ग़लत मतलब ग़लत होता है, यही बताऊँगी।
ग़लत नज़र को पहचानना सिखाऊँगी, ढाल बनकर हर राह में खड़ी हो जाऊँगी ।
बिटिया मेरी पराया धन नहीं, कोई सामान नहीं , जिसे सौंप कर गंगा नहाऊँगी।
अनमोल है मेरी बिटिया और अनमोल ही रहेगी।
खुल कर साँस लेना मैं अपनी बेटी को सिखाऊँगी।
मैं अपनी बेटी को अजनबी नहीं बना पाऊँगी। उसके हर दुःख-दर्द में साथ निभाऊँगी, इससे यही होगा ना कि मैं एक बुरी माँ ही कहलाऊँगी। ”
संगीता ने दृढ़ निश्चय किया और मान्या का हाथ पकड़ते हुए मान्या के ससुराल की तरफ निकल पड़ी ।
स्वलिखित संतोष श्रीवास्तव