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7 Feb 2017 · 1 min read

बेटी का खत

आता नहीं है रोज जो ख़त जैसी बन गई मैं
सब लिख दिया माँ पढ लो अब कैसी बन गई मैं।

मुझको वो तेरा आंगन अब लग रहा पराया
बेटी से बहू बन कर परदेशी बन गई मैं।

बाबुल से कहना खुश हूँ सह कर भी दर्द चुप हूँ
ससुराल में पंहुच कर तुम जैसी बन गई मैं।

जब याद आये मेरी आंचल में ढूंढ लेना
कोरों में जा छुपी हूँ खुश्बू सी बन गई मैं।

राखी में बाँध कर ही अब प्यार भेजती हूँ
महसूस करना भैया ऋतु जैसी बन गई मैं।

रिश्तों के जाल में कुछ खोई हूँ इस कदर मैं
खुद को तलाशती हूँ बुत जैसी बन गई मैं।

आता नहीं है रोज जो ख़त जैसी बन गई मैं
सब लिख दिया माँ पढ लो अब कैसी बन गई मैं।
…… सतीश मैथिल “तनुज”

4 Likes · 1 Comment · 537 Views
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