बेटियों के प्रति
बेटियों के प्रति
मैं,
कैसे भूल जाऊँ
कि
तुमने
उड़ेल रखे थे – दर्द!
अपने सारे।
हथेली पर रक्खे
नमक की तरह।
जो
अब चू रहे हैं –
नमकीन पानी बनकर,
गल…गल कर,
मेरे मन पर।
सुबह,
जब अखबार देखा-
पसीज उठा मन।
तुम,
ज़्यादा ही नमकीन हो गई हो,
अपनी उम्र के पड़ाव पर!
मेरी नन्ही गुड़िया!
संसार का
रक्तचाप बढ़ गया है!
उड़ जा चिड़िया,
यहाँ मत आ…..!!!
समय के साथ….
तेरा मांस…..
स्वादिष्ट हो गया है रे!!!!!
नोचेंगे!
फाड़ डालेंगे!!
यूँ ही…..
कच्चा खा जाएंँगे……
तुम्हें….
ये दरिंदे(?)
वहशी!
नर पिशाच!!
जिसने मानवता को नंगा किया….
वह तुम्हें कैसे छोड़ेगा???