बेटियां
क्या कहूँ तुझे मैं बेटियाँ,
मन पर बोझ माथे पर कलंक,
दरिंदगी का लहराता परचम,
सदियों से गूंजती यहाँ बस तेरी सिसकियाँ ।
न्यूज लिखे संग लेख भी,डिवेट, काव्य, निष्कर्ष भी,
न्याय/दंड के अनुबन्ध,हर पग एक नये प्रतिबंध,
कलंक सभी मिट गये,अनुबंध मुझपर रह गए,
बादल दुखों के छट गये,पाप भी सिमट गये ।
नई सुबह नई किरण,पीछे छूटा जुल्मो सितम,
भागम भाग में दुनिया रोती रही बस बेटियाँ,
आंसूओ के सूखते फिर होती कोई निर्भया,
वादों के जुमलों के बीच उम्मीदों की वही रीति,
राजनीति के आंगन को सींचती रही यह सिसकियाँ
सदियों से इस भूमि पर गूंजती बस मेरी सिसकियाँ,
कहती रही यह दुनियाँ, बड़े काम की यह बेटियां ।।