बेटियां ना मुक्तक छंद
बेटियां होती है वो कोहिनूर
जो अपनी होकर भी गैरों के घर रहती है जिम्मेदारी निभाती हैं निस्वार्थ
अविरल धारा जैसे गंगा की बहती है
मां बेटी बहन पत्नी
कितने रिश्तो का बोझ ये सहती है
ना दिखती फिर भी शिकन चेहरे पर
ना दर्द अपना किसी से कहती है
बेटी होने पर रोने वालों अपना नजरिया बदलो जरा
खोलो सोच के बंद दरवाजे चारों और देखो जरा
देश को पी वी सिंधु और शाक्शी ने जो पदक दिला सम्मान दिया
तो बोलो एक बेटी ने तुम्हारे घर पैदा होकर कैसे तुम्हारा अपमान किया
क्या नहीं दिखी दीपा कर्माकर जो दुनिया से लोहा ले बैठी थी
क्या देखे थे उसने सुख-साधन एक गरीब घर कि वो बेटी थी
लगने दो पंख अरमानों के सपनों की उड़ान उड़ने दो
क्या भूल गए कल्पना चावला को जो अंतरिक्ष में जा पहुंची थी
ना बांधो इनको बंधनों में जैसे मुक्तक छंद
इन को अपनी कहानी कहने दो
रहने दो इनको जैसे कविता
इनको अपने ही ढंग से बहने दो।