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8 Mar 2024 · 2 min read

बेटियाँ पर कविता

बेटी जब जन्म लेती है तब नही बजता

छत पर जाकर तासा और

नहीं बजाई जाती काँसे की थाली

बेटी जब जन्म लेती है तब

घर के बुज़ुर्ग के चेहरे पर

और बढ़ जाती हैं चिंता की रेखाएँ

बेटियाँ तो यूँ ही

बढ़ जाती हैं रूँख-सी

बेटी तो बिन सींचे ही

लंबी हो जाती हैं ताड़-सी

फैला लेती हैं जड़े पूरे परिवार की

बेटे जब जन्म लेते है तब शोर होता है कि बेटे है कुलदीपक

नाम रोशन करते ही रहे ।

बेटियाँ होती हैं घर की इज़्ज़त

दबी-ढकी ही अच्छी लगती हैं

बेटियों का हँसना

बेटियों का बोलना

बेटियों का खाना

बेटियाँ का आना जाना

अच्छा नहीं लगता

बेटियाँ तो अच्छी लगती हैं

खाना बनातीं बर्तन माँजतीं

कपड़ें धोतीं पानी भरतीं

भाइयों की डाँट सुनतीं

ससुराल जाने के बाद

माँओं को बड़ी और चार दीवारों मे सिमटी

माँओ को याद आती हैं बेटियाँ

माँ सोचती और महसूस करती है

जैसे बिछड़ गई हो

उसकी कोई सहेली

घर के सारे सुख-दुख

किससे कहे वह

बेटे तो आते हैं मेहमान की तरह और चले जाते है अजनबी माँ बाप को समझ कर

उन्हें क्या मालूम माँ क्या सोचती है

बेटियाँ ससुराल जाकर भी

अलग नहीं होतीं जड़ों से

लौट-लौट आती हैं सहेजने

माँ के बिखरे ख्वाब को

तुलसी का बिरवा भी

जमा जाती बेटियाँ

बेटियाँ माँ का बक्सा

टाँक जाती हैं

पिता की क़मीज़ पर बटन सजो जाती है ।

बेटे जब जन्म लेते है तब

छत पर जाकर बजता हैं तासा और

काँसे की थाली बजाती हैं

✍️ स्वरा कुमारी आर्या

Language: Hindi
1 Like · 140 Views

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