बेटियाँ, कविता
बेटियाँ
25/09/2022
छंदमुक्त कविता
कभी हिज़ाब के नाम पर ,
कभी लिहाज के नाम पर
रोज मारी जा रहीं बेटियाँ।
कहीं शिक्षा अधिकार के लिए
कहीं शिक्षा की प्राप्ति के लिए
वर्चस्व बढ़ाती जा रहीं बेटियाँ।
नग्नता अभिशाप है आज भी
ग्लेमरस की चौंध है आज भी
विज्ञापनों में छा रहीं है बेटियाँ।
रोज मरती हैं ,रोज जीती हैं।
अपमान के घूँट रोज पीती हैं।
कदमताल किये जा रहीं बेटियाँ ।
जमीन से गगन तक पतंग सी उड़ रहीं।
अपने ही दम पर कामयाब भी हो रहीं।
बढ़ती डोर सी रोज काटी जा रहीं बेटियाँ।
बिन बेटियों के सजता नहीं संसार है।
नवरात्रियों में जँचता नहीं दरबार है।
देवी माँ पूजते,मारी जा रहीं बेटियाँ।
आकाश कुसुम जो बनने लगीं
वहशी दरिंदों को गड़ने लगीं।
हवस का सामान बनाई जा रही बेटियाँ।
निर्भया हो कोई ,चाहे दिव्या बने कोई
अंकिता, सव्या, चाहे वन्या बने कोई
साजिशों के भँवर डुबाई जा रहीं बेटियाँ।
शिक्षित ,व्यापारी बने आज युवक बहुत।
पत्नी वही जो गौरवर्ण,सर्वगुण हो बहुत ।
अँग्रेज न बने,दहेज की आग जल रहीं बेटियाँ।
स्वरचित,मौलिक
@पाखी