बेजुबां जीव
बेजुबां की है एक ये दास्तां……
था कुछ ऐसा उसके जीवन का कारवां।
रोज़ आता है वो घर पर…..
स्नेहपूर्ण आँखों से है देखता,
रोटी की आस लेकर, वो हमारे दर पर बैठता।
चोट लगने पर; वो हमारे पास आ जाता था……
बिना कुछ बोले वो, कुछ इस तरह अपना दर्द बयां कर जाता था।
इंसान को सब कुछ मिल जाए; कभी खुश नहीं होता…..
ज़रा जानवरों से सीखिये, जो इंसानों की तरह सभी को दिखाकर नहीं रोता।
हम अपनी स्वतंत्रता में भी कभी न हुए खुश…..
वो जीवन भर परतंत्र होकर भी ; न की शिकायतें न हुए मायूस।
हम बोलते हैं, हम करते हैं, अपनी भावनाएं व्यक्त…..
परन्तु, आज खुद से पूछिये?
हम जानवरों के प्रति क्यों हैं, इतने सख्त?
वो बोल नहीं सकते….
इसलिये, हम समझते हैं उन्हें निर्जीव….
उनके बिना, पृथ्वी न होगी कभी सजीव….
आखिर; वो भी हैं इस पृथ्वी के जीव।
याद रखिये, ईश्वर ने हमें एक समान बनाया है….
गर वो न हो, तो रह जायेगा पृथ्वी पर सिर्फ स्वार्थियों का साया है।
दिल है, दिमाग है, फिर भी…..
समझ नहीं पाता इंसान उनका दर्द ,
क्यों बन नहीं पाता इंसान उनका हमदर्द?
गर हैं ज़ज़्बात…..
क्यों समझ नहीं पाता उनकी बात?
हम कहते हैं खुद को समझदार…..
फिर क्यों नहीं होता उनके दर्द का आभास?
याद रखिये….
उनसे हमारा जीवन हैं, हम प्राणी उनके कर्ज़दार हैं।
असल में, इंसान कहलाने के योग्य हैं वो….
वो ही इसके हकदार हैं।
कभी सोचा है?
उनके लिए वो पल कितना भारी होगा….
जब स्वयं मनुष्य, काल बनकर…..
जानवरों को गाड़ी से रौंद देते हैं।
कितने कष्ट? कितनी यातनाएं?
हम उन्हें देते हैं।
वो चुपचाप बस, हम इंसान ने जो दिया…..
वो दर्द सहते हैं।
सोचो ? पता चलेगा….
वो कितना तड़पता होगा, आखिरी वक़्त उसके मुख से क्या निकलता होगा?
क्यों? नहीं समझते हम इंसान, उनको भी तकलीफ़ होती है।
उनका भी घर परिवार है, उनको भी जीने की आस है।
क्यों खो रहे हम इंसान, उनको जो हम पर विश्वास है?
दर्द में रहते हैं ये, इन्हें समझो तो कितना कुछ कहते हैं ये।
इंसान अपनी इंसानियत से दूर है….
फिर भी रखते, ये हमें महफूज़ हैं।
इतना होने पर तो कोई भी रोने लगे…..
फिर भी अगर किसी को कोई भी फ़र्क न पड़े…..
समझ लेना इंसान अपनी इंसानियत खोने लगे।
इनकी आँखों में आँसू, चेहरे पर मासूमियत….
फिर भी हम क्यों नहीं देते इन्हें अहमियत?
ये कड़वा सच है….
लेकिन सच तो आखिर सच है_
मर चुकी है इंसान के अंदर की इंसानियत।
_ ज्योति खारी