बेचारा दिन
दीपावली का दिन
त्योहार तो है
पर मेरे लिए
हर दिन की तरह
आया है यह दिन भी
कोई खास बात नहीं
सुबह सवेरे ही शुरू हो गई थी
मित्रों परिचितों की
शुभकामनाएँ
बहुत से मित्रों ने लिख भेजी
सुन्दर सी
छुई-मुई कोमल भावों से भरी कविताएँ
मेरा भी मन किया कि कुछ लिखूँ
दीपकों के उजाले पर
रात की स्याही पर
उच्च न्यायालय द्वारा
रोकी जाने पर भी
पूरी रात सिर में फटती
आतिशबाजी पर
शोर मचाने के बाद भी खरीदी जाती चाइनीच़ रोशनियों पर
पर नहीं लिख पाई कुछ भी
तुम गई पूरी रात
मेरे इर्द-गिर्द घूमते रहे
एक साया बनकर
मुझे अहसास कराते रहे
अपने होने का
पूरी रात
तुम्हारे उस चिर परिचित
मंहगे कत्थई
सिगरेट की गंध
भरती रही मेरे नथुनों में
जिसे तुमने
मेरे लाख विरोध के बाद भी
नहीं छोड़ा था
मेरा दिल चाहा कि मैं
फूट-फूटकर रो पड़ूँ
कैसे जलाऊँ मैं प्रीत के दिए?
ओ अशरीरी
क्यों छलते हो?
क्यों बना रहने दिया तुमने
मेरे लिए यह दिन भी
वही पुराना, थका-सा
उनींदा उदास दिन