बेईमानी का फल
बेईमानी का फल
उदयपुरी नामक स्थान के वीरान खंडहरों में पिछले तीन वर्ष से भी अधिक समय से खुदाई का कार्य चल रहा है। कुछ खास हाथ नहीं लग रहा है। कभी कोई घड़ा हाथ लगता तो कभी चाक, पक्की ईंटे और अनेक मृदभांड। लेकिन इन सभी वस्तुओं का मिलना मनोहर और उसके जिगरी दिलगी यार जबाली के लिए एक आम बात थी। उन दोनों को तो कोई ऐसी अविश्वसनीय वस्तु का अपने हाथ लग जाने का इंतजार था कहते हैं। कहते हैं कि दो दोस्त दो भाइयों से भी बढ़कर होते हैं, ये बात लगता था कि किसी खुराफाती ने मनोहर और जबाली के लिए ही कही है। वे दोनों बचपन में एक ही गांव में रहे, साथ खेलें, बड़े हुए और फिर दोनों एक साथ इस पुरातत्व विभाग के पद पर आ नवाजे। दोनों को ही पुरातत्व वस्तुओं का बड़ा शौंक था। उन दोनों का ही सपना था कि एक दिन उनका नाम भी मार्शल महोदय की तरह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर लिखा जाए, बस इसी के लिए उदयपुरी के इन वीरान खंडहरों में यह प्रयास जारी था। जब स्थानीय लोगों को इस स्थान से कुछ पक्की ईंटे मिली तो ये खबर आग की लपटों की तरह जबाली के कानों तक पहुंची और फिर यहां पर खुदाई का कार्य प्रारंभ हो गया। उन दोनों को वहां पर डेरा डाले हुए 3 साल से भी अधिक अरसे का समय हो गया था, मगर अब तक निराशा ही हाथ लग रही थी।
दिन के तीसरे पहर का समय होने को आ गया है। मनोहर हाथों पर दस्ताने चढ़ा कुछ पत्थरों को चाकू की मदद से साफ किया जा रहा है, तो दूसरी ओर जबाली कुछ ईंटों को तोड़े जा रहा है मानो उनके बीच में किसी ने सोना छुपाया हो और वह एक लोभी की तरह उसे ढूंढ रहा है।
तभी एक ओर से एक मजदूर की आवाज आई “सर, जल्दी आइए यहां पर कुछ है।”
उन दोनों ने उस ओर देखा और तेजी से उस मजदूर के पास भागकर गए। कुछ ईंटों को लंबी कतार में एक के ऊपर एक करके सजाया गया था।
मनोहर- “लगता है ये कोई दीवार है।”
जबाली- “हां लगता तो ऐसा ही है।”
मनोहर- “एक काम करो सभी मजदूरों को बुलाओ और इस दीवार के पास खुदाई करो। क्या पता कुछ ऐसा हाथ लग जाए जो आज तक किसी के भी हाथ में लगा हो।
कई दिनों तक वहां पर खुदाई का कार्य चला। पहले तो सिर्फ ईंटे मिली और फिर एक कब्रिस्तान, फिर एक मकान। मगर वे दोनों संतुष्ट नहीं थे, वे तो कुछ ऐसा पाने की फिराक में थे, जो और कहीं से भी न मिला हो और न मिले।
आज भी खुदाई जारी थी। पहले तो एक बड़ी सी दीवार मिली। फिर धीरे-धीरे पूरा मकान ही मिल गया।
मनोहर- “जबाली क्या मकान है ये। जरूर किसी समय में ये किसी रईस का अडा हुआ करता होगा मगर वक्त ने ऐसी नज़रे फेरी कि ये सिर्फ एक वीरान खंडहर बनकर रह गया।”
जबाली-“मकान के अंदर घुसकर देखते हैं अगर कुछ हाथ लगता है तो?”
वे दोनों मकान के अंदर घुसकर छानबीन करने लगे। मगर हमेशा की तरह ईंटे, रंगे हुए पत्थर ही मिले। जबाली ने एक ओर इशारा किया ओर बोला “उस मिट्टी के ढेर के नीचे शायद कुछ है।”
उन दोनों ने फावड़ा ले उस मिट्टी के ढेर को हटाया तो एक संदूक हाथ लगा। उस संदूक को देख उन दोनों के मन में एक तीव्र इच्छा जागृत हुई। जबाली ने उस संदूक को खोला। अंदर एक ताम्रपत्र था, जिस पर संस्कृत भाषा में लिखा था “उत्मादि के काले जंगलों की काली गुफा के काले तहखाने में असीमित धन मिल सकता है, अगर हूण राजा मिहिरकुल वहां तक ने पहुंचा हो तो।”
मनोहर-“क्या बात है असीमित धन यानी अब हमारी गरीबी खत्म।”
जबाली-“अगर धन न मिला तो?”
मनोहर-“अगर इसमें लिखा है तो जरूर मिलेगा”
जबाली-“ठीक है तो मैं कल सुबह काले तहखाने की खोज में निकलूंगा और तुम यहीं पर रहकर खुदाई कार्य जारी रखना क्या पता कुछ और हाथ लग जाए।”
मनोहर मन में सोचने लगा”तो यह बात है। धन देख इसकी नियत बिगड़ गई। सारा धन अकेले ही हजम करना चाहता है। मैं तो इसे अपना दोस्त समझता था और यह मेरे साथ ही गद्दारी कर रहा है।रुक बच्चू तुझे तो मैं बताऊंगा।”
मनोहर-“अरे नहीं जबाली! हम दोनों साथ चलेंगे और इस धन पर हाथ फेरेंगे।”
जबाली ने भी धीरे से हां में सिर दिला दिया।
मनोहर ने अपने चेहरे पर नकली मुस्कुराहट दिखाई क्योंकि ये बात उसे अंदर से खा जा रही थी कि उस धन में से आधा हिस्सा जबाली ले लेगा जबकि वह सारा धन अकेले ही प्राप्त करना चाहता था। वो नहीं चाहता था कि जबाली इस धन में हिस्सेदार बने। उन दोनों ने अगली सुबह उत्तमादि की ओर निकल पडने का निर्णय लिया।
शाम का वक्त है। मनोहर कुछ सोचते हुए अपने घर में टहल रहा है। मनोहर अपने मन में सोच रहा था कि “उस जबाली की नियत में तो खोट निकली। कह रहा था कि अकेला ही धन खोजने के लिए जाऊंगा, खुद को बहुत शातिर समझता है। उस जबाली को तो ठिकाने लगाना ही पड़ेगा। पर क्या किया जाए? अगर वो असीमित धन मुझे मिल गया तो तमाम उम्र बेफिक्री में कटेगी।”
अचानक से मनोहर अपने आप से ही बुदबुदा उठा “हत्या।” कुछ निश्चित, अनिश्चित योजना बनाता हुआ सोने चला गया।
अगले दिन पीठ पर बैग टांग, पानी की बोतल डाल, अच्छे कपड़े पहन कर दोनो उत्मादि के जंगलों की ओर निकल पड़े। जंगल में चलते-चलते शाम होने को आ गई। ताम्रपत्र के मुताबिक वे दोनों उस काली गुफा तक जा पहुंचे। गुफा पत्थरों की बनी हुई थी। दरवाजा भी कुछ पत्थरों से बंद किया हुआ था।
जबाली ने गुफा के ऊपर की ओर देखा और मुस्कुराया और फिर उस ओर इशारा करते हुए कहा “देखो गुफा का नाम।”
मनोहर ने ऊपर की ओर नजर दौड़ाई। गुफा के ऊपर था लिखा था “जबालीपुर।”
जबाली-“लगता है इस गुफा का मालिक तो मैं ही हूं। न जाने इस गुफा में छुपे हुए धन को कब से मेरा ही इंतजार था और आज इस गुफा का मसीहा बिल्कुल इसके सामने खड़ा है।”
यह सुनकर मनोहर आग में बोला हो गया। गुस्से के मारे आंखें लाल हो गई, मगर उसने इस अपमान को पचा लिया और रुद्रा रोद्र रूप में बोल उठा “पहले गुफा का दरवाजा खोलते हैं।”
वे दोनों पत्थरों को हटाने लगे। पत्थरों को हटाकर गुफा के अंदर पहुंचे। गुफा में घना अंधकार छाया हुआ था। दोनों ने टॉर्च चालू की। गुफा के अंदर नीचे की ओर एक तहखाना था जिसमें सीढ़ियां बनी हुई थी जो कि अब काफी हद तक टूट फूट चुकी थी, परंतु अंधेरे में भी तहखाने की स्तह पर एक संदूक चमक रहा था जो काफी हद तक टूट फूट चुका था, अंशत: अभी भी बचा हुआ था। वे दोनों उस संदूक को देखकर पागल हो उठे।
मनोहर-“पहले तुम चलो।”
मनोहर की बात सुनकर जबाली ने पहली सीढ़ी पर कदम रखा तो मनोहर ने उसे पीछे से जोरदार धक्का दे मारा। वो लोट पोट होता हुआ स्तह में जा गिरा और दीवार से सर टकराने के कारण तड़फने लगा। मनोहर ऊपर खड़ा जबाली की ओर देखकर मुस्कुरारहा था।
मनोहर-“इसको बड़ा शौक था अकेले धन हासिल करने का। अब इसे एक फूटी कोड़ी तक नसीब न होगी।”
मनोहर ने उस संदूक की ओर देखा और तेजी से नीचे उतरने लगा और संदूक को अपनी बाहों में भर कर पागल हो उठा।
मनोहर-“अब सारा धन मेरा है। सिर्फ और सिर्फ मेरा।”
उसने हड़बड़ाहट में जल्दी से संदूक खोला पर उसकी खुशी ज्यादा देर स्थिर नहीं रह सकी क्योंकि संदूक तो पूरी तरह से खाली था। उसका दिमाग घूमने लगा। जबाली ने स्तह पर लेटा अभी भी छटपटा रहा था। मनोहर की ओर देखते हुए उसने अपने अंतिम शब्द धीरे से कहे “बेईमानी का फल।”
इतना कहकर उसने अपनी आंखें बंद कर ली जैसे उसमें प्राण ही न हो। मनोहर वही फर्श पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा। उसने आज सिर्फ चंद पैसों के लालच में आकर अपने दोस्त को मार दिया था। उसने जबाली को पाकर भी जबाली को खो दिया था।