बेअदब कलम
दायरे से बाहर
( आज़ाद गज़लें )
*मेरी बात *
इस दौर का दीवान लिख रहा हूँ मैं
हक़ीक़त-ए-जहान लिख रहा हूँ मैं।
हुस्नोईश्क़ पर लिखनेवाले हैं बहुत
बेबसों की दास्तान लिख रहा हूँ मैं।
गुजर जाऊँ गुमनाम कोई गम नहीं
डाल खतरे में जान लिख रहा हूँ मैं।
खुदा की खुदगर्ज़ी खलेगी ज़रूर
हो कर जो परेशान लिख रहा हूँ मैं।
मंदिरों से मुझको अब भेजेंगे लानत
आदमी को भगवान लिख रहा हूँ मैं ।
आनेवाली पीढ़ीयाँ पढ़ेंगी मुझको भी
नये दौर का संविधान लिख रहा हूँ मैं
कहीं लग न जाए बुरी नज़र अजय
है मेरा भारत महान लिख रहा हूँ मैं
**
1
हाँ कुछ तो गद्दार इधर भी है उधर भी है
हाथों में हथियार इधर भी है उधर भी है।।
और ये पराई आग में रोटियाँ सेंकने वाला
बेगैरत बरखुरदार इधर भी है उधर भी है।।
मगर फ़िर भी कायम है इंसानियत क्योंकि
इनसानी किरदार इधर भी है उधर भी है ।।
फक़त ये फ़ासले मिटाने से है फायदा क्या
चंद दिलों में दरार इधर भी है उधर भी है।।
लाख कर लें शिक़ायत हम एक-दूसरे से
लोग मिलनसार इधर भी है उधर भी है।।
-अजय प्रसाद
2
सबकुछ तो महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं होता
दिल जलता तो है पर राख नहीं होता ।
चलना चाहते हो आसमां पे तो सुनलो
वहाँ पैरों के नीचे कोई घास नहीं होता ।
मेरे बारे में कुछ तो ज़रूर राय होगी ही
लाख मना कर लो बिश्वास नहीं होता।
यादें अक़सर ज़िंदा रखतीं हैं शख्सियत
खुद्दारी किसी का कभी खाक़ नहीं होता ।
तुम्हारे कहने से भला क्या होगा अजय
कौन कहता है कि वो खास नहीं होता ।
-अजय प्रसाद
3
हाशिए पे रह कर जो कुछ हासिल करतें हैं
हक़ीक़त में जग वाले उसे काबिल कहतें हैं।
संभलते नहीं हैं ठोकरें खाकर भी जो कभी
ऐसे बेवकूफ माहिरों को गाफ़िल कहतें हैं ।
लाखों की भीड़ में जो खुद को साबित करे
वैसे हुनरमंदो को सब लोग कामिल कहतें हैं ।
इंसानियत को जो समझे है फ़र्ज़-ए-मज़हब
अदब की दुनिया में उसे हम आदिल कहतें हैं ।
बड़े आए हो मियाँ अजय याँ फलसफ़ा बताने
तुम जैसे शायरों को अक़सर जाहिल कहतें हैं।
-अजय प्रसाद
4
खतरे में तो अब हर समाचार है
हरेक शख्स आजकल पत्रकार है ।
मोबाईल और ये सोशल मिडिया
बन गया एक भयंकर हथियार है ।
जिसे देखो जुटा है सच बताने में
झूठ हो गया किस कदर लाचार है ।
बदइन्तेजाम के बंदरबाट में यारों
पक्ष और विपक्ष दोनों साझेदार है।
बदजुबानी,बद्तमीज़ी,औ नंगापन
मशहूर होने को बेहद मददगार है
भला इलज़ाम भी लगाए,तो किस पे
जनता ही इसके लिए जिम्मेदार है।
तू कौन सा है दुध का धुला अजय
अबे!तू भी फ़ेसबुकिया रचनाकार है।
-अजय प्रसाद
5
बेहद डीसिप्लींड लाईफ़ जी रहा है तू
इसलिए अभी तक सिंगल ही रहा है तू ।
बदल गया है दौर तू भी बदल खुद को
अब तक पुराने ज़्ख्मों को सी रहा है तू ।
महफिल में आया है, चेहरे पे मायुसी है
और उस पर ये कोल्ड ड्रिंक पी रहा है तू।
क्यों भला कोई भाव देगा तुझ को यहाँ
अक़सर इज़ली अवलेबल भी रहा है तू ।
है इंसानियत तुझमे ज़िंदा,कोई शक़ नहीं
पसंद सबकी आखरी फ़िर भी रहा है तू ।
-अजय प्रसाद
डीसिप्लींड- disciplined
लाईफ़-Life
सिंगल- Single
कोल्ड ड्रिंक -Cold Drink
इज़ली -Easily
अवलेबल-Available
6
आइना पोछने से चेहरे साफ नही होते ।
प्रायश्चित करने से गुनाह माफ नही होते ।।
ठिठुर जाती है ठंड मे हड्डियां तक उनकी ।
जिन गरीबों के पास लिहाफ़ नही होते।।
जब तक उनके हक़ मे फैसले जायज हैं
मजदूर मालिकों के खिलाफ़ नही होते ।।
फिकी पड़ जाती हैं चमक सब चेहरों की
उम्र-ए-रजाई के लिये गिलाफ नही होते ।।
न गम,न शिकवा,न होती ही कोई तकलीफ
काश अजय दिल से ,तुम अल्ताफ नही होते ।
(अल्ताफ =दयालु,उदार)
-अजय प्रसाद
7
ज़्ख्मों को कुरेदने का हुनर जो है
दुशमनी निभाने में बेहतर वो है ।
दे रक्खा जिसने दिल किराये पर
यारों इश्क़ में बेहद मोतबर वो है।
जब कर लिया किनारा करीने से
साथ डूबने से ज़रा बेहतर तो है।
ज़िंदगी कर रही इस्तेमाल जमकर
गफ़लत में मेरी ये सारी उमर जो है
भा गया है भटकना अब मुझे भी
मंज़िल न सही राह में पत्थर तो है
खंगालता है खामियां खाक़सार में
खुश हूँ मैं अजय मुझपे नज़र तो है।
-अजय प्रसाद
8
हाईली एडवांस दौर का प्यार
मतलब आ बैल आ मुझें मार।
हुस्नोईश्क़ की हैसियत है ऐसी
जैसे फ़ेसबुकिए साहित्यकार।
आशिक़ी में आजकल सभी हैं
लाइक्स,कमेंट्स के तलबगार।
आउट डेटेड होगए लैला-मजनू
झेलते डिजिटलीकरण की मार।
इंटरनेट पे हैं इंटरनेशनल लवर्स
सोशल मीडिया से करते शिकार ।
-अजय प्रसाद
9
लहज़ा -ए-क़ातिल आरिफ़ाना है
किस कदर ज़ालीम ये ज़माना है ।
औकात नहीं मेरी कि तुझे चाहूँ मैं
मगर दिल ये बस तेरा दीवाना है ।
मुद्दतों बाद जो मुस्कुरा रहा हूँ मैं
यानी दर्दोगम को तुझसे छुपाना है ।
होगा ज़रूर कोई एब यारों मुझमे
बस ये बात दिल को समझाना है।
इस दौर में इश्क़ और इमानदारी से
अजय तुम्हारा पैंतरा बेहद पुराना है।
-अजय प्रसाद
10
ये जो मज़दूरों की बस्ती है
यहाँ मुसीबतों की मस्ती है ।
तुम मानो या न मानो मगर
यहीं से अमीरों की हस्ती है ।
मिलते हैं मुआवजे मरने से
मौत महंगी ,ज़िंदगी सस्ती है।
बेहद मेल-जोल से रहते यहाँ
भूख गरीबी और तंगदस्ती है।
है सदियों से सितमगर ही रहा
वक्त की ये ज़ोर ज़बरदस्ती है।
-अजय प्रसाद
11
वर्षो से बहर की पाबंदियों में क़ैद है गज़ल
अगरचे हक़ीक़त से बेहद लबरेज़ है गज़ल ।
उस्तदों ने उलझा रक्खा है दुनिया-ए-इश्क़ में
जबकी हक़ बयानी में बेहद मुस्तैद है गज़ल ।
अक़्सर अहमियत इसकी हुस्नोइश्क़ में दिया
अगरचे इन्क़लाबी ज़मीं पे ज़र्खेज़ है गज़ल ।
अक़्सर संभाला है बहर ,मात्राओं ने गिर कर
शायर समझता है कि उसकी तुफैल है गज़ल
जिसको लगी लत इसकी वो तो काम से गया
अब कैसे कहें यारों कितनी पुरकैफ़ है गज़ल ।
ज़ुर्रत कैसे करी अजय तुमने ये सब कहने की
तुम्हारे मुँह से तो सुनना भी अवैध है गज़ल ।
-अजय प्रसाद
12
ज़िंदगी में बस एक कसक रह गई
ढल गई शाम मगर शफ़क़ रह गईं ।
यूँ तो गुज़र रही है साथ अपनो के
उम्रभर कमी उनकी बेशक़ रह गई।
हालातों ने कुचल डाला हसरतें मेरी
और दाग दिल में अब तलक रह गई।
शुक्र है खुदा का महफ़ूज़ है मुहब्बत
बनके चाहत की ‘वो’ललक रह गई ।
लूट लिया लम्हों ने जागीर अजय की
ज़ेहन में यादों की बस महक रह गई।
-अजय प्रसाद
13
जीत कर भी आजकल मुझे हार लगता है
सुना सुना सा ये भरापुरा संसार लगता है।
इस कदर तन्हाइयां कर रही तीमारदारी
खाली ये कमरा ही अब परिवार लगता है ।
हूँ तो वर्षो से मैं इसी आँगन के आगोश में
खफ़ा खफ़ा सा क्यों दरो दीवार लगता है।
ज़िंदा हूँ जुदा हो कर भी ज़माने में जबरन
मगर सच कहूँ तो जीवन बेकार लगता है।
सुन कर तेरी बातें अजय हो गया यकीन
कि अपने आप से ही तू बेज़ार लगता है ।
-अजय प्रसाद
14
बचकानी बातों से बचना चाहिए
फ्री की सौगातों से बचना चाहिए ।
जिस से मिलकर लगे खुद को बुरा
ऐसे मुलाकातों से बचना चाहिए ।
लाख शिकायतें रहे अपने लोगों से
गैरों के खुराफातों से बचना चाहिए ।
बेमेल मुहब्बत मुश्किलें ही बढ़ातीं हैं
कमसिन जज़्बातों से बचना चाहिए।
तनहाईयाँ तुझे तवाह करेगी अजय
वीरान चांदनी रातों से बचना चाहिए
-अजय प्रसाद
15
वो है ताबूत में आखिरी कील की तरह
झपट लेता है हर मौका चील की तरह।
गल्तियां करके भी मानते हैं कहाँ हुजूर
देने लगतें है सफाई वकील की तरह ।
हर एक किरदार में ढल कर देख लिया
मगर फितरत है पुराने दलील की तरह।
मोहताज हैं मोहतरम तजुर्बों का बेशक़
भले हो सुरत उनकी ज़मील की तरह ।
चलो ठीक है जी रहे हैं जो वो भरम में
कौन समझता है उन्हें क़तील की तरह।
-अजय प्रसाद
जमील =अत्यधिक सुंदर; ख़ूबसूरत।
क़तील = “वह जो सर्वशक्तिमान के कल्याण के लिए कुछ भी त्याग सकता है”
16
अबे! बता न तुझे जलन है किस बात की
गर बात है सबके साथ सबके विकास की ।
माना कि नामुमकिन है सबको खुश रखना
मगर हमने कहाँ छुप कर किसी पे घात की ।
मान रही है दुनिया अब अपना सरदार हमें
तो बोल अहमियत कहाँ है तेरे विसात की।
फक़त फ़िज़ूल में खामियां खंगालता है क्यों
क्यों नहीं है क़दर अवाम के खयालात की ।
बड़े तरफदार लगते हो यार अजय तुम भी
क्या सताने लगा है डर तुम्हें भी हवालात की।
-अजय प्रसाद
17
क्यों आजकल तू कुछ लिख नहीं रहा
या तुझमे कहीं कुछ ठिक नहीं रहा ।
क्यों खामोश है देख कर ये खामियां
क्या तुझे कुछ भी बुरा दिख नहीं रहा।
बिक गई कलम या सूख गई है स्याही
या रिसालों के पन्नो पे बिक नहीं रहा ।
न शाम,न ज़ाम,न कहता हाले अवाम
अब तो महफ़िलों में भी टिक नहीं रहा।
बेरुखी बेसबब हो नहीं सकती अजय
ज्वलंत मुद्दों पे कलम घिस नहीं रहा।।
-अजय प्रसाद
18
खुद को खुंखार खुदगर्ज़ बना
ज़ख्मों पे खुद के नमक लगा।
किसकी मजाल जो सताए तुझे
मुसीबतों में तू मुसलसल मुस्कुरा।
सादगी तेरी किसी काम न आई
लोगों को अब तेरी शैतानी दिखा।
खामोशियां हैं तेरी बेहद खुद्दार
चीख कर इन्हें गुनाहगार न बना।
बेगैरत होते हैं हुस्न के नज़ाकत
गिरफ्तार होने से खुद को बचा।
अपनी डफली औ अपना राग है
तू भी अजय अपनी दास्ताँ सुना।
-अजय प्रसाद
19
हाँ,बिक्रम भी मैं औ बैताल भी मैं हूँ
तेरे हर जवाब का सवाल भी मैं हूँ ।
इतना हैरान क्यों हो मेरी फितरत पे
यारों उस क़ुदरत का कमाल भी मैं हूँ ।
कामयाबियों पे अपनी फ़क़्र करनेवाला
बेहतरीन बेवकूफ औ बेमिसाल भी मैं हूँ ।
दौर बदला है दिनोईमान के साथ-साथ
बेहद खुदगर्ज अमीर औ कंगाल भी मैं हूँ।
तारीख ने करी है तिज़ारत मेरे हुनर का
,वक्त,माज़ी,मुस्तकबिलऔ हाल भी मैं हूँ।
ज़िंदगी,ज़िंदादिली,जहालत जन्नतोजहन्नुम
राहत भी मैं और जी का जंजाल भी मैं हूँ ।
-अजय प्रसाद
20
***
गुज़र गया साल मगर हम नही
मनाओ जश्न के खुशी कम नहीं।
बस पलट गया पन्ना कैलेंडर का
घट गई यारों उम्र,मगर गम नहीं।
ज़िन्दा जो हैं ज़िंदादिली के बगैर
खुदा का उनपर कोई करम नहीं।
जो बिताते हैं वक़्त को बेरहमी से
वक़्त भी है करता कोई रहम नहीं।
ठोकरें खाई तुमने दिल लगा कर
अजय अब भी टूटा तेरा भरम नहीं
-अजय प्रसाद
21
भीड़ से हूँ अलग मैं अकेला अच्छा
किस को लगता है ये झमेला अच्छा।
यूँ तो कोसते रहते हैं हम दुनिया को
वैसे लगता है यहाँ का मेला अच्छा।
ये मुसलसल मुक़ाबला मुसीबतों से
जद्दो-जहद का यारों है रेला अच्छा।
चाँद,तारे,फूलऔ तितलियाँ ही नहीं
प्यार में लगता है संध्या बेला अच्छा ।
रौनक चेहरे पर जो है अजय तुम्हारे
मतलब गमों को है तूने झेला अच्छा ।
-अजय प्रसाद
22
सुनी सुनाई बातों पर ध्यान मत देना
जहालत में पड़के कभी जान मत देना
लोग भूल जाते हैं इस्तेमाल करके यहाँ
औरों के तलवारों को मयान मत देना।
लाख बुरी लगे बातें बच्चों की,बुजुर्गों
इस दौर में उन्हें मुफ्त ज्ञान मत देना ।
प्यार पर भरोसा एक हद तक है सही
इश्क़ में कर सबकुछ क़ुर्बान मत देना ।
नए साल के लिए एक वादा काफ़ी है
किसी को भी अपनी ज़ुबान मत देना।
दिलो-दिमाग दुरुस्त रखना है अजय
बेमक़सद किसी पे दिलोजान मत देना।
-अजय प्रसाद
24
आइना मुझको मेरी औकात बताता है
कुछ इस तरह से हर रोज़ सताता है ।
जब कभी भी सामने गया हूँ मैं उसके
उम्र ढल जाने का एहसास कराता है ।
लाख कर लूँ जतन खुश रहने की मैं
हाल-ए- मुल्क मेरा मुझको रुलाता है ।
मसअले मुझसे बेहद मुतमईन हैं रहते
और चैनो अमन दूर से ही मुस्कुराता है ।
ज़िंदगी की अदाएं भी कमाल है यारों
मर के है जिंदा,कोई ज़िंदा मर जाता है ।
-अजय प्रसाद
25
बड़ी बेरहमी से जज्बात को दबाया मैने,
दिल की हर इक बात को है छुपाया मैने ।
तू मेरे दर्द रही कितनी बेखबर, लेकिन ,
सामने तेरे हरपल मगर मुस्कुराया मैने ।
झलक न जाए ईज़हार कँही आखों से ,
तेरे रुखसार से निगाहों को हटाया मैने।
कोई उम्मीद न पनप जाए तूझे पाने की,
हर लम्हा समझा है तुझको पराया मैने ।
तेरी हँसी,तेरी खुशी,तेरी सलामती को,
अक़्सर दुआ को हाथ है उठाया मैने।
फूल सेहरा मे खिलाना था मुश्किल यारों
तो काँटो को ही बड़े प्यार से उगाया मैने।
दफ़न हो गई हसरतें हालात के कब्र मे,
थी मर्ज़ी-ए-खुदा खुद को समझाया मैने।
-अजय प्रसाद
***
26
वक्त सचमुच बदल रहा है
खोंटा सिक्का ही चल रहा है।
सिधा-सादा सच्चा औ अच्छा
आजकल सबको खल रहा है।
बद्तमीज़ बच्चे,बेबस बुजुर्ग
समय दोनो को छ्ल रहा है ।
मतलबपरस्ती से हुस्नोईश्क़
रोज़ नये सांचे में ढल रहा है।
देख लिया अजय इस दौर में
इंसानियत घुटनों के बल रहा है।
-अजय प्रसाद
27
हुनर गर हाथ में है तो बेरोजगारी क्यों
नौकरी चाहिए तुम्हें बस सरकारी क्यों ।
जहाँ पे है जरूरत मेघ मल्हार की बेहद
वहाँ गा रहे हो आप राग दरबारी क्यों ।
हौसला है,हिम्मत है,ताकत है,फ़िर भी
रहतें हैं कुछ लोग बनके भिखारी क्यों ।
मिलकियत फक़त मुलाज़िम होने तक है
तो अकड़तें हैं दफ़तर में अधिकारी क्यों।
सदियाँ बीती मगर न समझा अजय कोई
कि आदमी ही है आदमी का शिकारी क्यों।
-अजय प्रसाद
28
छीन के काँटो से गुलाब लाया हूँ
हुस्न का तेरे मैं जवाब लाया हूँ ।
देखो कहीं दरक न जाए आइना
बला की तुझपे मैं शबाब लाया हूँ।
भरेंगे चांद और सितारे अब आहें
साथ अपने’वो’माहताब लाया हूँ ।
जिसको पढ़ने की हसरत लिए था
इश्क़ की मै ‘वो’ किताब लाया हूँ ।
याद रखेगा ज़माना,ज़माने तलक
आशिक़ी में वो इन्क़लाब लाया हूँ ।
पेशानी पे रकीबों के बल पड़ गए
अजय उनके लिए अज़ाब लाया हूँ
-अजय प्रसाद
29
निखरने लगा हूँ मैं उनसे नजरें मिला कर
करता हूँ बातें अब तो सबसे मुस्कुरा कर।
हो गया यकीन उस वक़्त खुदा पे मुझको
जब किया इकरार उसने आँखें झुका कर।
गुजर तो रही थी ज़िंदगी गुमनाम बेसबब
कर दिया मशहूर उसने अपना बना कर ।
चांद,तारे,फूल,तितलियाँ,सुबहओशाम भी
मिलतें हैं शबो-रोज़ मुझसे खिलखिला कर ।
सादगी है,सुकून है सहूलियत के साथ-साथ
ख्वाब भी खुश हैं आजकल नींद में आकर।
-अजय प्रसाद
30
जो है नही उसे पाने की चाह में
दिन-रात गुजरता है बस आह में ।
महफ़िलों में अब वो रौनक नहीं
है लज़्ज़त भी नहीं वाह!वाह!में।
मंजिल की तलाश ही बेमज़ा है
अगर न मिले हमें ठोकरें राह में ।
इश्क़ इस दौर इक इदारा है यारों
देने पड़तें हैं चंदे ज़िस्मोनिगाह में ।
अजय तू क्यों फ़िक्रमंद है बेहद
तेरी हस्ती है वक़्त के पनाह में
-अजय प्रसाद
31
दरमियां दिलों में दोनो की दूरियां रह गई
ढल तो गई उम्र मगर मजबूरियाँ रह गई ।
हिचकिचाहट आज भी है मौजूद मन में
लबों पर दोनो के ही खामोशियां रह गई ।
हो चुके हैं दोनो किसी और के हमसफर
बेमेल हमारी औ उनकी जोडियाँ रह गई ।
निभा तो रहे हैं दोनो अपने-अपने रिश्ते
बन कर गले की हड्डी ये शादियाँ रह गईं।
अब भला क्या फायदा है अजय बताओ
दोनो तरफ़ से कुछ-कुछ गल्तियां रह गईं ।
-अजय प्रसाद
32
नफरत सी हो गई है मुझे प्यार से
हुस्नोईश्क़ के खोखले किरदार से।
देखके इस दौर में आशिक़ी यारों
शिक़ायत न रही कोई दिलदार से।
हैसियत उसकी पहले कर लो पता
मांगते हो जो दिल किसी खुद्दार से।
सो रहे हैं हम मजे में चैन की नींद
अब क्या उम्मीद करें हम सरकार से।
सुखी होना है असंभव,बस खुश रहूँ
दुआ करता हूँ यही परवरदिगार से ।
-अजय प्रसाद
33
हक़ औ हिसाब मांगा तो बुरा मान गए
काँटों से गुलाब मांगा तो बुरा मान गए ।
वर्षो तलक जिनको रक्खा गया गुमनाम
जब उसने खिताब मांगा तो बुरा मान गए।
ज़िंदगी भर जो सहते रहे ज़ुल्मोसितम
ज़रा सा आदाब मांगा तो बुरा मान गए।
दबे कुचले रहे जो अनगिनत सरकारों से
ज़र्रे ने आफताब मांगा तो बुरा मान गए।
तुम तो अजय बड़े ही दगाबाज़ निकले
गज़ल-ए-किताब मांगा तो बुरा मान गए।
-अजय प्रसाद
34
जल रहा है वतन ,आप गज़ल कह रहे हैं
सदमे में है ज़ेहन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।
कुछ तो शर्म करें अपनी बेबसी पे आप
जख्मी है बदन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।
जले घर , लूटी दुकानें, गई कितनी जानें
उजड़ गया चमन,आप गज़ल कह रहे हैं ।
कर ली खुलूस ने खुदकुशि खामोशी से
सहम गया अमन ,आप गज़ल कह रहे हैं ।
खौफज़दा चीखों में लाचारगी के दर्दोगम,
है दिल में दफ़न ,आप गज़ल कह रहे हैं ।
दोस्ती,भाईचारा,और भरोसे की लाशों ने
ओढ़ लिया कफ़न ,आप गज़ल कह रहे हैं ।
रास्ते,गलियाँ,घर बाज़ार सब वही है मगर
है कहाँ अपनापन आप गज़ल कह रहे हैं ।
क्या कहें अजय हालत मंदिरो,मस्जिदों की
सब हैं आज रेहन आप गज़ल कह रहे हैं
-अजय प्रसाद ( रेहन =बंधक )
35
कुछ लोग राई का पहाड़ बनाते हैं
और कीमती को कबाड़ बताते हैं ।
उखाड़ रहे हैं जो आप ये गड़े मुर्दे
क्यों उनकों यूँ आईना दिखाते हैं ।
दफ़न है जो भी तारीख के पन्नो में
गल्तियां क्यों फ़िर वही दोहराते हैं।
ज़माना तो जम गया है बर्फ़ मानिन्द
बस इसी बात का फायदा उठाते हैं ।
कोई बदलाव नहीं ला सकते अजय
तेरी गज़लें अब तुझे ही समझाते हैं ।
-अजय प्रसाद
36
न गीता,न बाईबल न कुरान की बात
मैं तो करता हूँ भले इन्सान की बात ।
न पूजा,न नमाज,न अज़ान की बात
मैं कहता हूँ बेहतर इमकान की बात।
न खुदा,न मसीहा,न भगवान की बात
करें रोजी-रोटी औ मकान की बात।
चांद,तारे,सूरज न आसमान की बात
धरती पे बसे मामूली महान की बात।
फूल,खुशबू,भँवरे न बागवान की बात
मैले कुचैले,भूखे-नंगे नादान की बात ।
हाँ,आत्महत्या करते किसान की बात
पढ़ेलिखे बेरोजगार नौजवान की बात ।
होली,दीवाली,ईद,क्रिसमस,के साथ ही
करता हूँ मैं हरएक भाईजान की बात।
-अजय प्रसाद
37
हैं तबाही के तलातुम और मैं
है वही संगदील सनम और मैं।
वही दीवारें हैं दरमियां हमारे
वही फ़ासले वही वहम और मैं।
वही सरगोशीयाँ हैं वही लोग
वही जमाने के सितम और मैं ।
वही हुस्न तेरा ,वही ईश्क़ मेरा
है वही दिल में दर्दोगम और मैं।
वही दुनिया,वही खुदा है अजय
वही उसके ज़ुल्मोसितम और मैं ।
-अजय प्रसाद
38
समस्याएँ अनगिनत ,एक सरकार
जैसे एक अनार और सौ विमार ।
सरकारी इन्तेजाम है इतना पुख्ता
भ्रष्टों के आगे पुरा तंत्र है लाचार ।
कहीं पे बाढ़ और है कहीं अकाल
कहीं पे भुखमरी है कहीं बेरोजगार ।
गुस्से में है बंगाल,चिढ़ा है राजस्थान
रुठा है महाराष्ट्र व बिरह में है बिहार ।
खुश रखना राज्यों को नहीं आसान
कोई मान जाता,कोई देता है दुत्कार ।
पक्ष और विपक्ष हैं दो चक्की जिसमे
पिसी जाती है जनता बेबस लाचार ।
सदियों से होता यही आया है यहाँ
कुछ अलग होगा सोचना ही है बेकार ।
छोड़ो अजय तुम फिक्र क्यों करते हो
लो पियो गर्म चाय और पढ़ो अखबार ।
-अजय प्रसाद
39
मौत भी मय्यसर है उस को जो ज़िंदा है
ज़िंदगी के लिए जद्दो-जहद भी धंधा है ।
ज़िस्म को तो जकड़ रक्खा है ज़रूरतों ने
मन भटक रहा यूँ जैसे आज़ाद परींदा है ।
आज के दौर में न कर कारोबार-ए-ईश्क़
आशिक़ी का बाज़ार तो आजकल मंदा है ।
कुछ इस कदर फ़िदा हैं मुझ पर मुसीबतें
सहूलियत अपने आप से बेहद शर्मिन्दा है ।
कोशिशें हैं कामयाबियों की जी हुजूरी में
मायूसी चेहरे पर नतीजों का नुमाइंदा है ।
पूछतें हैं लोग अक़सर औक़ात अजय की
कह दो वक्त के हाथों पीटा गया कारिंदा है।
-अजय प्रसाद
40
साहिल पे बैठ के समंदर देख रहा हूँ
है कितना लाचार धुरंधर देख रहा हूँ।
बेजान नज़ारे कश्तियाँ,और किनारे
बाहर नहीं खुद के अंदर देख रहा हूँ ।
लहरें लौट रही हैं टकरा के किनारों से
और मैं मायूस होके मंजर देख रहा हूँ।
उसकी यादोँ के जजीरे हैं आबाद यहीं
तन्हाइयों ने डाला है लंगर देख रहा हूँ ।
बेहद खामोशी से लम्हा लम्हा ही सही
दिल में उठता एक बवंडर देख रहा हूँ।
-अजय प्रसाद