बूढ़ों का गांव
बूढों का गांव
बच्चे दूर देश के वासी, हम रह गए अपने गांव
बही समय की आंधी में, रोजी – रोटी की नांव।
दादा-दादी, पोता-नाती, सब बिखर गया परिवार
बूढ़ा-बूढ़ी की खेती-बारी, अपने घर के चौकीदार!
मंदिर-मस्जिद, वही शिवाले, अब भी अपने गांव
खेतों की हरियाली फीकी, उजड़ गए खलिहान ।
बाग-बगीचे धरे रह गए, समय ने खेला दांव
कहां बच्चों की तोतल बोली, छोटे-छोटे उनके पांव!
वही आज चंदा और सूरज, तारे लेकिन दूर हैं छिटके
गाते अब भी गीत पुराने, सुर लेकिन लगते हैं अटके।
कभी भरा था कोना – कोना, अब सन्नाटे की चीत्कार
कभी शोर थी दौड़-भाग की, बूढ़ा-बूढ़ी अब पहरेदार!
मौन खड़े हैं बाग-बगीचे, लेकर शीतल अपनी छांव
नहीं सुनाई देती मुंडेर पर, लेकिन कौओं की कांव।
अपने जिम्में चूल्हा-चौकी, और अपनी है रोटी-दाल
पढ़ा लिखा बच्चों को पाया, विधि का अद्भुत उपहार!
राम-नाम संग ही होगा अब,
भवसागर से बेड़ा पार।
सुनहरी यादें हैं थाती अपनी,
और यही बूढ़ों का गांव!
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–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।