बूढ़ी उम्मीदे चौखट पर रोज दिया जलाती है
बूढ़ी उम्मीदे चौखट पे रोज चिराग जलाती है
मन मे न जाने कितने सपने सजाती है
जानकार होकर भी अबूझ पहेली सी नजर आती है
सब पर बेटे के अफसर होने की धाक जमाती है
भीगी पलके और एकाकीपन पर मुस्कराहट का पर्दा लगाती है
अक्सर अकेले मे गुम अन्त:वेदना से सिसक जाती है
बच्चो के इंतजार मे पतझड़ सी मुरझा जाती है
बच्चे वक्त की दुहाई और काम का जोर बताते है साल मे लगभग एक बार घर आते है
मॉ सारे अरमान सजाती है
फिर से नितान्त अकेली हो जाती है
दिल सोचने पर मजबूर हो चला
क्या आधुनिकता की यही पहचान है
सचमुच देश बदल रहा है
अंधी दौड़ मे आत्मीय रिश्तो का कत्ल हो रहा है
शहरी रंगीनियो मे गुम चिराग
कुछ ऐसा गुम है कि चौखट का ख्याल भी बमुश्किल होता है
..उस चिराग के पास शायद भागदौड़ की जिंदगी मे इतना भी वक्त नही की वो पल भर ठहर कर सोच सके .
भावनातंमक आत्मीयता तो भौतिक जगत मे विलुप्त सी होती जा रही है ..क्या अपने शहर मे संभावनाओ की कमी है जो हर बच्चा पलायन कर रहा है ..व्यवस्था सोचनीय है ..
नीरा रानी