बूढ़ा बरगद
शीर्षक – बूढ़ा बरगद
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आज फिर वो मन मसोस कर रह गया l कितनी आवाजें दी थी उन युवाओं को लेकिन सब ने अनसुना कर दिया l शायद किसी के पास समय नहीं l उसने चौपाल पर नजर डाली लेकिन वहां कोई नही था l शायद वे फोन, टीवी, लैपटॉप आदि आधुनिक उपकरणो में उलझे हुए होंगे l पनघट भी चौपाल की भाति सुनसान था l शायद महिलाए भी किसी टीवी सीरियल में व्यस्त होंगी l आधुनिक व्यस्तता के चलते मेरे अकेलेपन और मेरी पीड़ा से किसी को कोई सरोकार नहीं lमुझसे किसी को क्या लेना देना, मै बूढ़ा जो हो गया हूँ l शायद मैं अब किसी के कोई काम का नहीं l – ये सब बुदबुदाते हुए बूढ़ा बरगद अतीत की यादो में खोता चला गया l
आज से लगभग सौ साल पहले आया था इस गांव में l सबने बहुत देखभाल की l मिट्टी के कच्चे घरूए से लेकर पक्के चबूतरे तक का सफर कैसे निकल गया पता ही नहीं चला l जब सभी गाँव बाले मेरी छाँव में सुस्ताते, चौपाल लगाते, छोटे छोटे बच्चे मेरी गोद में आ खेलते, पत्तों को खींचते, टहनियों से आ लटकते, पनिहारने जब पनघट से गगरी भर मेरी छाँव में आ बैठती तो सच में, मै अपने आप पर फूला नहीं समाता l गाँव की महिलाये जब मर्यादा से मेरे पास से गुजरते हुए अनायास ही अपने सर पर पल्लू डाल लेती तो मेरे मुख से “सदा सुहागन” की आशीष निकल जाती l
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन, गाँव के मुकदमे की सुनवाई और पंचायत, होली की शुरुआत के साथ ही शुरू होती रस रंग और फाग, और न जाने क्या क्या, सबके ताने बाने मेरी छाँव के नीचे ही बुने जाते l हरिया की काकी, कजरी की मेहरी, रामू की दुलहिन और उनकी सात आठ सहेलियाँ जब भी अपने मैके से आती जाती तो मेरी छाँव में जरूर रुकती और मै भी उन्हे जी भर के आशीष देता..” सौभाग्यशाली भवः” , “पुत्रवती भवः,” और भी बहुत कुछ l जब भी किसी बेटी की डोली उठती तो मेरे आँगन से होकर ही गुजरती l कितनी बेटियों को मैंने बिदा किया और कितनी ही बहुओं का स्वागत सत्कार, कुछ भी नहीं भुला पाया हूँ l
होली की मीठी गुजिया, दिवाली के खील खिलौने, ईद और सावन की सिवइंयो की मिठास, मैंने हर साल चखी है l पनघट, पनिहारने, चौपाले, गिल्ली डंडा, डोली, पल्लू का घूँघट, फाग, प्रेम से पगी गुजिया, पंचायत और पंच परमेश्वर …. अब कोई नही रहा l सभी चले गए हैं मुझे अकेला छोड़कर.. नितांत अकेला l
ये सब याद करते हुए बूढ़े बरगद की मुरझाई आँखो से जलधारा उमड़ पड़ीl जो बहते हुए उसकी लंबी जटाओं से लिपटकर, बूंद बूंद होती हुई, पत्तों से ढके गंदे चबूतरे पर टपक रही थी…. टप.. टप. टप… टप…… l
राघव दुबे
इटावा
8439401034