बुन रही सपने रसीले / (नवगीत)
तोड़कर
पत्थर हठीले ।
बुन रही
सपने रसीले ।
बह रहा है
स्वेद झर-झर,
चल रही है
हवा सर-सर,
दग्ध वसुधा
तप्त तन है,
शीत-चंदन
पुता मन है,
कर लिए
छैनी, हथौड़ा,
काढ़ती सिल
और लोढ़ा ।
नयन दोनों
हैं सजीले ।
बुन रही
सपने रसीले ।
सामने इक
पेड़ सूखा,
सुबह से ही
पेट भूखा,
बैठ जाती
उसके नीचे,
खोल आँचल
आँख मीचे,
अंक में लेती
है बच्चा,
तृप्त करती
नेह सच्चा ।
निकल पड़ते
सुर सुरीले ।
बुन रही
सपने रसीले ।
कर रही है
चोट दिल पर
कठिन श्रम की
ओट लेकर,
काटती पत्थर
इकहरा,
पाट लेती
दर्द गहरा,
धूप का नित
नेह सहती,
और तिलतिल
देह ढहती ।
काटती, पर
रूढ़ टीले ।
बुन रही
सपने रसीले ।
०००
—– ईश्वर दयाल गोस्वामी ।
छिरारी(रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।