शैक्षिक स्तर का ह्रास
आजकल शिक्षा में तो बहुत तेजी से इजाफा हो रहा हूं लेकिन उसका स्तर गिरता जा रहा है। यह बहुत ही चिंता का विषय है। भविष्य के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, शिक्षा विशेषज्ञों को इस विषय पर चिंतन-मनन की जरूरत है।
बुनियादी शिक्षा की बात करें तो पिछले दो दशक के अंदर हमारी सरकारों ने बहुत तेजी से स्कूलों की स्थापना की है। इसी तरह प्राइवेट स्कूलों में भी तेजी के साथ कई गुनी वृद्धि हुई है। सुदूर ग्रामीण इलाकों में भी शिक्षा की पहुंच हो चुकी है। यह बहुत ही खुशी की बात है कि हर परिवार में बच्चों को शिक्षा दी जा रही है। देहात में भी लड़कियों को पढ़ाने का क्रेज बढ़ा है।
एक तरफ तो बढ़ रहे शैक्षिक स्तर पर हम अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ यह एक चिंता का विषय है कि शिक्षा में जिन मूल्यों का समावेश होना चाहिए, उनसे हम काफी दूर होते जा रहे हैं। आज के परिवेश में शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ इतना भर रह गया है कि अच्छी डिग्रियां हासिल कर ली जाएं, कंपटीशन पास कर लिया जाए और उसके बाद अच्छी जगह सिलेक्शन हो जाए। शिक्षा के मामले में समाज की यह मनोवृत्ति भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
शिक्षा देने वालों की बात करें तो बुनियादी स्तर पर योग शिक्षकों का होना बहुत जरूरी है, क्योंकि यही वह अवस्था होती है, जब बच्चे को एक घड़े की तरह गढ़ा जाता है। इसके बावजूद हम देख रहे हैं की पूरी तरह शिक्षा का ढांचा लगातार कमजोर होता जा रहा है। सरकारी स्कूलों में पूरे संसाधन होने के बावजूद अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। इन स्कूलों के प्रति अभिभावकों में भी कोई खास रुचि नहीं है।
इसके उलट प्राइवेट स्कूलों में भीड़ के साथ कंपटीशन भी खूब है। अभिभावक इन स्कूलों में ही अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, जबकि सरकारी स्कूलों के मुकाबले अधिकांश प्राइवेट स्कूलों के पास न तो योग्य शिक्षक है और न ही पर्याप्त संसाधन। इसके बावजूद यह भरोसा रहता है कि सरकारी के मुकाबले प्राइवेट स्कूलों में अच्छी पढ़ाई और अच्छा माहौल मिलता है। क्या इस धारणा को मिथक कह दिया जाए? क्या इतने कहने भर से समस्या का समाधान हो सकता है? यह हम अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं?
पिछले डेढ़ -दो दशक से सरकारी स्कूलों की छवि में बहुत तेजी के साथ गिरावट आई है। एक दौर था, जब सरकारी स्कूलों में पढ़ने के बाद बच्चे बड़े होकर अच्छे पदों पर पहुंचते थे। अब तो कोई यह उम्मीद भी नहीं कर सकता कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने के बाद बच्चे मामूली नौकरी भी पा सकेंगे।
अब सवाल यह है कि इन सब विसंगतियों के लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? सरकार, उसकी नीतियों को या फिर समाज को? अगर विश्लेषण किया जाए तो सरकार, सरकार की नीतियां और समाज सभी इसके लिए जिम्मेदार हैं।
सरकार ने नीति बनाई कि किसी भी बच्चे को फेल नहीं किया जाएगा। ऐसे में सवाल यह है कि वह परीक्षा ही क्या जिसमें पास और फेल न किया जाए? किसी भी सरकार के किसी कानून पर उंगली उठाना मेरा मकसद नहीं है लेकिन शिक्षा का अधिकार अधिनियम में तमाम बिंदु ऐसे हैं जिन पर एक बार फिर गहन चिंतन की जरूरत है।
बाल अधिकार में यह भी शामिल है कि शिक्षक किसी भी बच्चे की पिटाई या डांट नहीं सकते। परीक्षा होगी और सब बच्चे पास हो जाएंगे, चाहे वह पढ़ने मैं तेज हो या फिर कमजोर। आमतौर पर बच्चे पढ़ाई से मन चुराते हैं जब बच्चे को फेल होने का कोई डर ही नहीं होगा तो पढ़ाई क्यों करना चाहेगा? सरकारी शिक्षकों को प्रशिक्षण के दौरान बाल मनोविज्ञान भी पढ़ाया जाता है। इस मनोविज्ञान पर कोई गौर नहीं करता कि जब फेल नहीं होंगे तो बच्चे पढ़ाई क्यों करेंगे? या फिर अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं भेजना चाहते हैं?
सरकारी स्कूलों से दूरी का एक कारण मुफ्तखोरी भी हो सकता है। हमारी सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत हर चीज मुफ्त कर दी। बच्चों से किसी भी चीज का पैसा नहीं लिया जाता है। बच्चों को किताबें यूनिफॉर्म, जूते, स्वेटर आदि सभी चीजें स्कूल से ही मुहैया कराई जा रही है। घर से लाने वाला टिफिन सिस्टम भी अब बंद हो चुका है। मिड डे मील के तहत दोपहर का खाना भी दिया जाता है। तमाम बच्चे ऐसे हैं जो किताबें, ड्रेस, जूते मिलने के समय है स्कूल आते हैं। अक्सर स्कूल की यूनिफार्म पहनकर बच्चे खेतों में काम करते नजर आते हैं।
सरकार पढ़ाई के लिए बच्चों को तमाम सुविधाएं दे रही है। यह बहुत अच्छी बात है लेकिन हर चीज मुफ्त होने के बाद उसकी अहमियत घट जाती है। यह सच्चाई है, मनोविज्ञान है। दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूलों में हर बात का पैसा लिया जाता है। कई मदों में फीस वसूली जाती है, आए दिन कार्यक्रमों के नाम पर, स्कूल टूर के नाम पर, परीक्षा के नाम पर, विदाई पार्टी आदि तमाम तरह से साल भर में भारी-भरकम रकम वसूली जाती है। कुछ देकर कुछ मिलता है, शायद यही वजह है जो प्राइवेट स्कूलों की तरफ समाज का रुझान बढ़ रहा है।
सरकारी स्कूलों में शैक्षिक गुणवत्ता की बात करें तो सरकार और सरकारी शिक्षकों को ही अपनी शिक्षा व्यवस्था पर भरोसा नहीं है। यह आरोप नहीं है बल्कि एक सच्चाई है। इसका तर्क यह है कि कोई भी सरकारी शिक्षक, अन्य कर्मचारी, जनप्रतिनिधि आदि अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पसंद नहीं करते हैं।
सरकार, सरकारी शिक्षकों, जनप्रतिनिधियों के अनुसार सरकारी स्कूल शिक्षा की अलख जगा रहे हैं, तो ये लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में क्यों पढ़ाते हैं? यही वजह है जो अभिभावक अपने बच्चों को संसाधन युक्त सरकारी स्कूलों के बजाय प्राइवेट स्कूलों में भेजना पसंद कर रहे हैं। इस विषय पर सरकार ही नहीं बल्कि समाज के शिक्षाविद, बुद्धिजीवी वर्ग को इस पर चिंतन मनन करके नीतियों में सुधार करने की जरूरत है।
© अरशद रसूल