बुनते स्वप्न्न
स्वप्न जो बुने हमने
वो कांच के थे
टूट कर ध्वस्त हो गए वो स्वप्न्न
जिसे तपाया कम आंच पे थे
स्वप्न्न जो बुने हमने
वो मिट्टी के थे
टूट बिखर वो बुने स्वप्न्न
मिट्टी में ही मिल गयें
स्वप्न्न जो बुने हमने
वो फूल से थे
खिले थे खिलखिलाए से थे कल तक
आज मुरझा कर जमीं पे बिखरे पड़े है
तो क्या स्वप्न्न देखना छोड़ दें
गतिमान जीवन मे चलना छोड़ दें
अभी तो चलना बहुत है
बुने जो स्वप्न्न साकार हो के रहेंगे
—हाँ मुझे स्वीकार है
सारे स्वप्न्न जो हमने बुनें
आधे अधूरे अपरिपक्व थे!
उनींदी नींद और अर्धचेतना में
स्वप्नों का निर्माण था
टूटे कांच की भांति
मिले माटी के मानिंद
फूलों सा मुरझाया था!
—हाँ, मुझे विश्वास है
पुनः अवचेतन को मिलेगी चेतन
परिकल्पना पाएंगी संजीवन
बुनेंगी स्वप्न्न दृढ़ निश्चय संग
और प्रत्यक्ष दिखेंगी
आकार लिये साकार लिये
स्वप्न्न को संकल्प का रूप धरना होगा
तन हो या मन हो रक्तरंजित
दुखों के ताप को सहना होगा
शूल चुभे पांव में या व्रज प्रहार हो सीने पे
ले संकल्प आगे बढ़ना होगा
स्वप्न तो होते ही है
साकार होने को
बस संकल्प हो प्रबल
स्वप्न्न संग जीने को…..