बुनते रहे हैं
गीतिका
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नये से स्वप्न हम बुनते रहे हैं।
बहाने क्यों मगर सुनते रहे हैं।
नहीं है मानता मन देखिए अब।
महकते पुष्प प्रिय चुनते रहे हैं।
नहीं है स्वार्थ अपना तो मगर क्यों।
किसी के प्यार में भुनते रहे हैं।
नहीं आराम कर सकते कहीं भी।
स्वयं ही व्यर्थ कुछ गुनते रहे हैं।
कभी जो बात बनती नहीं जब।
उसी को नित्य क्यों धुनते रहें हैं।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य