बुढापे की लाठी
उंगली पकड़कर चलना
बुढ़ापे की लाठी है
संस्कारों के हाथों में ही
समय की बैसाखी है।।
कोलाहल के कंठ में
ऋचाएं संचित हैं
यह यज्ञ की वेदियां
मंडित-खंडित हैं।।
अक्षय आकाश में
अभी नया सवेरा है
रात के बिस्तर पर
तारों का बसेरा है।।
क्षितिज के उस पार
खोले हैं किसने द्वार
मुस्कुराते हैं मंद मंद
जीवन वीणा के तार।
सुर, नदी और ताल
और हम सब वेताल
शून्य से शिखर पर है
सांसों की हड़ताल।।
सूर्यकान्त