** बुझी बुझी सी जिन्दगी **
डा ० अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
** बुझी बुझी सी जिन्दगी **
आदमी आजकल क्युं बुझा बुझा सा रह्ता है
कभी हाल पूछो तो अटपटा सा जबाब देता है ||
गैर हो या के पहचान वाला शख्स हो
साथी हो बचपन का या के सहकर्मी हो
हर किसी को कोई चीज जैसे परेशान किया करती है
आदमी आजकल क्युं बुझा बुझा सा रह्ता है
यूं ही किसी बात पे खफ़ा हो जाना अच्छा नही लगता
यूं ही किसी का अचानक से रूठ जाना अच्छा नही लगता
यूं ही किसी का अचानक से * बुझ* जाना अच्छा नही लगता
हाल पूछो तो अटपटा सा जबाब पाना अच्छा नही लगता
आदमी आजकल क्युं बुझा बुझा सा रह्ता है
कभी हाल पूछो तो अटपटा सा जबाब देता है ||
मुझे दुनिया के किसी भी शख्स से क्या लेना
मेरे आस पास के लोग ही जुड़े रहे बस इतना कहना
फिर भी उदास रहना , बुझे से चेहरे से नजर आना
मायुस चेहरे देख देख कितना खराब लगता है
मैं जानता हुँ हर किसी को जिन्दगी परेशान करती है
मैं जानता हुँ हर किसी को जिन्दगी से शिकायत रह्ती है
मुझे इस तरहाँ सब को परेशान देख कर रोने क मन करता है
आदमी आजकल क्युं बुझा बुझा सा रह्ता है
आदमी आजकल क्युं बुझा बुझा सा रह्ता है
कभी हाल पूछो तो अटपटा सा जबाब देता है ||
मजबूर है दुनिया बनाने वाला भी दुनिया को बना कर
बड़ी गफलत में है अल्लाह भी दुनिया को बना कर
कभी सोचा भी न होगा उसने करुंगा क्या और क्या हो जाएगा
प्रेम के संसार में नफरत का माहोल पसर जाएगा ||
इन्ही हालत के चलते आदमी पशेमान सा रह्ता है
हाँथ होंगे कर्म होगा कर्म का भी एक फर्ज होगा
हाँथ होंगे कर्म होगा कर्म का भी एक फर्ज होगा
फिर भी वो नही होगा , जो एक पल सकून का दे पायेगा ||
आदमी आजकल क्युं बुझा बुझा सा रह्ता है
कभी हाल पूछो तो अटपटा सा जबाब देता है ||
बहुत सोचता है अरे एय सुन तू रे अबोध से बालक
जिन्दगी गुजरी फिर भी क्या ढूँढता रहता है तु अबोध बालक
जैसे अब तेरे ढूँढने ही तुझको खुदा मिल जाएगा
अतृप्त आया था जगत मैं सभी के जैसे और अतृप्त ही रह जायेया ||
आदमी आजकल क्युं बुझा बुझा सा रह्ता है
कभी हाल पूछो तो अटपटा सा जबाब देता है ||