बुजुर्ग ओनर किलिंग
जैसा सुना था, उससे भी बदतर हाल में जीने को मजबूर था वो – पशुओं से भी बदतर। उलझे लम्बे सफेद दाढी व सिर के बाल। बडे-बडे मुडे हुए मैल से भरे काले-पीले नाखून। धंसी हुई स्याह आंखे। पुराना मैला कुर्ता, टूटी-बूढी खाट। नीचे से नंगा ही था, जो देखते ही हाथ बढाकर धूलभरा फटा कम्बल एक हाथ से खींच ढक लिया था। उसकी हालत देखते ही रोने का मन हुआ। पत्नी व एक पुत्र की मौत और लकवे ने उसे लगभग मार ही डाला था। बचा-खुचा जीवन एकमात्र सहारे ने ही नर्क कर डाला। नशेडी, चोर, झगडालू से भी कहीं ज्यादा ऐबदार। बात-बिन-बात पीटते रहना जिसकी दिनचर्या बन गई थी। ना समय पर रोटी, ना दवा। कोई–कोई रात तो भूखे रोते हुए ही गुजर जाती। शुरू-शुरू में पडौसी तरस खाकर दो रोटी खिला देते थे, परन्तु मां-बहन की गन्दी गालियों की बौछारों से सब दूर होते चले गए।
शहर में नया वृद्धाश्रम खुला। स्कूल के एक मास्टर ने गांव के पंचायती-मौजूज आदमियों को इकट्ठा किया। सुनकर सब खुश हुए। परन्तु पुराने सरपंच की बात से सबको मानो सांप सूंघ गया – “ ले तो चलो भाई, पर बाहर के लोग क्या कहेंगे? पूरा गांव एक आदमी को ना संभाल पाया। ” और गांव के सम्मान बाबत उस ‘भूखी आंखों’ वाले को यूहीं मरता हुआ छोड सब एक-एक कर चले गए। (सत्य घटना)।
मा० राजेश लठवाल चिडाना (नैशनल अवार्डी) 9466435185