बिहार से एक महत्वपूर्ण दलित आत्मकथा का प्रकाशन / MUSAFIR BAITHA
एक बिहारी दलित की आत्मकथा अभी अभी छपकर आई है ‘एक दलित की आत्मकथा’ नाम से।
आत्मकथाकार रामरक्षा दास बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं।
इस आत्मकथा की पांडुलिपि प्रथमतः मैंने पढ़ी थी और आत्मकथाकार से पांडुलिपि में कुछ जोड़ घटाव का सुझाव भी दिया था, जिसपर उन्होंने अमल भी किया था। वयोवृद्धावस्था में पहुंचे दास का जीवट और हौसला ही कहिये कि उन्होंने मेरे कहने पर अपनी आत्मकथा में A3 साइज पेपर पर लगभग 70 पन्ने अपनी कठिनता से पढ़े जाने योग्य सघन लिखावट में जोड़े।
दास जब कागज़ पर लिखते हैं तो उनके हाथ कांपते हैं। इस स्थिति में उन्होंने दुबारा 70 पेज लिखे।
यह पुस्तक कोविड पीरियड से पहले भी आ सकती थी, अगर दास की लिखावट सुपाठ्य होती। इस पांडुलिपि को पढ़ते, संशोधित – सम्पादित करते हुए मेरी हिम्मत जवाब दे जाती थी, जिससे काम अटकता जाता था।
इधर, दास स्वाभाविक ही आतुर थे, बेचैन – व्यग्र थे कि पुस्तक जल्द से जल्द छपे। लेकिन मैंने प्रथम प्रूफ पढ़कर अपने हाथ खड़े कर दिये। तब श्रीकांत जी ने चर्चित कवि कुमार मुकुल को पकड़ा और उनकी मदद से पुस्तक के प्रकाशन का बचा काम करवाया।
लगभग 80 वर्षीय दास पटना में रहते हैं। पासवान/दुसाध जाति से वे आते हैं। व्यवहार से वे मतलबी हैं, अवसरवादी हैं, हालांकि लगातार विनम्रता धारण किये रहते हैं। अपने प्रति उनके ‘नमकहराम’ व्यवहार से आहत होकर ही मैंने पुस्तक छपने की प्रक्रिया बीच ही अपना हाथ खींच लिया।
यह जरूर है कि दास ने अपने जीवन संघर्ष का विस्तृत खांचा यहाँ खींचा है जो एक आम दलित एवं मध्य स्तर के अधिकारी पद धारी दलित के इस सवर्णवादी व्यवस्था में संघर्ष एवं व्यथा का सरल शब्दों में रेखांकन करता है। सबसे मार्मिक और दुःखद प्रसंग लेखक के दो बेटों की हत्या का है, एक की आप अपहरण कर हत्या (संभावित) होती है, लाश भी नहीं मिल पाती, दसियों साल से लापता की ही स्थिति बनी हुई है, जिसको मर गया मानकर लेखक हिंदू विधि से अंतिम संस्कार भी करता है।
आत्मकथाकार के चरित्र की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वे भाग्य, भगवान और भूत – प्रेत जैसे बकवासों में विश्वास करते हैं जो पुस्तक की एक बड़ी सीमा है।
आत्मकथा की भाषा बोलचाल की है और इसकी बुनावट में कोई साहित्यिकता नहीं है। यही स्ववृत्त यदि कोई सधा शब्दशिल्पी लिखता तो यह रचनात्मक साहित्यिक कृति होती।
बावज़ूद इन सब बातों के, बिहारी समय समाज को एक दलित के स्वानुभूत के जरिये से समझने के लिए यह महत्व की कृति है। किताब पठनीय है भी। पढ़ना शुरू करेंगे आप तो पढ़ते जाएंगे।
आत्मकथाएं मुझे अपील तो करती हैं लेकिन उनमें आए ब्योरों को सर्वथा सत्य मानकर चलना भूल होगी। इस किताब के बारे में भी यही सच है। कोई आत्मबयानी एकदम से ईमानदार हो भी नहीं सकती। लेखक अपनी इमेज़ का ख्याल तो रखता ही है।
पुस्तक में कुमार मुकुल की लिखी भूमिका जरूर पढ़ें आप। मेरी यहाँ लिखी बात और कुमार मुकुल की टिप्पणी, फिर, श्रीकांत और आत्मकथाकार की टिप्पणियाँ भी हैं पुस्तक में। इनसे आपको पुस्तक का ।
बिहार क्षेत्र से यह ‘प्रॉपर’ तीसरी दलित आत्मकथा है। इससे पहले डा रमाशंकर आर्य एवं प्रसिद्ध दलित लेखिका कावेरी की आत्मकथा आ चुकी है। ख्यात दलित लेखक बुद्धशरण हंस की आत्मकथात्मक किताबें भी पांच खंडों में छप चुकी हैं ‘टुकड़ा टुकड़ा आईना’ शीर्षक से, जो वस्तुतः उनके संस्मरणात्मक आलेखों के संग्रह हैं जो उनके द्वारा ही सम्पादित पत्रिका ‘अम्बेडकर मिशन पत्रिका’ में छप चुके हैं। वैसे, ‘नंदलाल की डायरी’ नाम से मगही – हिंदी के चर्चित लेखक बाबूलाल मधुकर की आत्मकथा भी दो खंडों में आई है जो वह कचरा है जिसमें से आपको काम की चीज़ें बीननी पड़ेंगी। आत्मकथाकार जरूर ईमानदार दीखते हैं कई जगह, ख़ासकर स्त्रियों क भोग एवं उनसे सम्भोग करने के संबंध में।
यह पुस्तक प्रभात प्रकाशन जैसे बड़े संस्थान से शायद, न छप पाती, अगर, आत्मकथाकार दास को प्रतिष्ठित पत्रकार – कथाकार – लेखक श्रीकांत से भेंट का सुयोग न मिलता। उन्होंने उनकी जुबानी आपबीती सुनी, और, उसे आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत करने का सुझाव दे दिया।
पुस्तक ‘एक दलित की आत्मकथा’ पेपरबैक में है। यह 247 पृष्ठों की है, कीमत ₹350 रखी गयी है।
पुस्तक 2 दिसंबर से 13 दिसंबर तक चलने वाले पटना पुस्तक मेला में प्रभात प्रकाशन के बुक स्टॉल पर बिक्री के लिए उपलब्ध है।