बिहार, दलित साहित्य और साहित्य के कुछ खट्टे-मीठे प्रसंग / MUSAFIR BAITHA
दलित साहित्य स्वानुभूत पर आधारित साहित है जो दलित तबके की सवर्णों एवं अन्य वर्चस्वशील जातियों द्वारा सदियों से हुई हकमारी, अनदेखी, भेदभाव एवं प्रताड़ना से उपजी खुदमुख्तारी की एसर्टिव भावना के तहत पैदा हुआ है. लोकतंत्र के मानवाधिकारपूर्ण सामाजिक सेटअप में इस अनिवार्य हस्तक्षेप का आना लोकतंत्र को पूरता है, साहित्य के लोकतंत्र में जोड़ता है।
हम बिहार के संदर्भ में साहित्य की दलित लेखनधारा पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यह आजकल हिंदी पट्टी के अन्य क्षेत्र के दलित लेखन की तरह ही महाराष्ट्र क्षेत्र में चले दलित पैंथर आन्दोलन के प्रभाव में सन उन्नीस सौ सत्तर के दशक में जन्मे मराठी दलित साहित्य के अनुसर है, जिसने स्वयं अफ्रीकी ब्लैक पैंथर आन्दोलन एवं उससे उद्भूत ब्लैक लिटरेचर से खाद-पानी ग्रहण किया था. हिंदी दलित साहित्य का एक लेखकीय परिघटना एवं साहित्यधारा के रूप में सन 1990 के दशक में दाखिल होना भी मुख्यतः इसी प्रभाव में हुआ. जबकि ‘स्वान्तः सुखाय’, स्वतःस्फूर्त, शौकिया एवं अपना दुःखदर्द अभिव्यक्त करने के लिए तो दलित लेखनी व्यक्तिगत स्तर पर पहले से चलती आ ही रही थी. पटना के किन्हीं हीरा डोम की प्रसिद्ध कविता ‘अछूत की शिकायत’ ऐसी ही कविता थी. भारत और बिहार में किसी दलित कवि की दलित संवेदना से लैस यह पहली प्रकाशित रचना मानी जाती है जिसे सन 1914 में सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से निकलने वाली अपनी पत्रिका ‘सरस्वती’ में छापी थी. यह कविता ही हीरा डोम का प्रथम एवं अंतिम परिचय है, उनका अन्य कोई जिक्र कहीं नहीं मिलता.
हीरा डोम की इस एकल रचना के साथ उपस्थिति के लगभग 45 साल बाद सन 1960 के दशक में जाकर बिहार क्षेत्र के कुछ दलित लेखक रचना-सक्रिय मिलते हैं जिनमें से कुछ लोग अब भी हमारे बीच मौजूद हैं और लिख-पढ़ भी रहे हैं. यहाँ ध्यान देने योग्य है कि हीरा डोम की तरह ही बिहार के अधिकतर समकालीन कवि भी विभाजित चेतना के कवि हैं। मेरा कहना यह है कि जिस तरह से ईश्वरवादी हीरा डोम उक्त कविता में अपनी और अपने जैसों की दुर्दशा एवं ब्राह्मणों (कहें सवर्णों) की आततायी उपस्थिति को लेकर ईश्वर में आस्था रखते हुए ईश्वर से सवाल भी करते हैं वह कविता की ताकत भी है तो सीमा भी; उसी तरह से बिहार के अनेक दलित कवि अपनी और अपने समाज की दु:स्थितियों एवं प्रभु जातियों से मिल रहे उत्पीड़न को लेकर आक्रोशित और क्षुब्ध तो हैं लेकिन वे भाग्य-भगवान् के फेरे में भी पड़े हुए हैं. भाग्य-भगवान् के स्वीकार वाली चीजें उनकी ज़ाती ज़िंदगी में ही नहीं वरन रचनाओं में भी आ रही हैं. ईश्वरवादी तो करीब 600 साल पहले आए क्रांतिकारी कवि कबीर भी ठहरते हैं, जो एक अदृश्य अलौकिक शक्ति में विश्वास रखते थे, मगर, उनकी रचनाओं में जाति, सम्प्रदाय विषयक भेदभाव एवं व्यर्थ के धार्मिक वाह्याचारों को साफ़ लताड़ – दुत्कार मिलती है. और इस क्रम में वे हिन्दू-मुस्लिम अन्धधार्मिकों एवं धार्मिक सत्ता के षड्यंत्रकारी संचालक वर्ग, ब्राह्मण एवं मौलवी को बड़ी बेदर्दी और खूबसूरती से आड़े हाथों लेते हैं. कबीर के निशाने पर रोजा, नमाज, पूजा-पाठ, गंगा स्नान, तिलक-छाप धारण, मुल्लों का दाढ़ी धारण, मुसलमानों का खतना कराना आदि सारे आम धार्मिक चलन और करतब हैं.
यह दुख का विषय है कि अभी के अनेक दलित कलमकार भी व्यर्थ की धार्मिक कसरतों में मुब्तिला मिलते हैं. वैज्ञानिक चेतना और अम्बेडकरवादी विचार से छत्तीस का नाता रखते दीखते हैं। इनमें से कुछ तो अपने लेखन में इन धार्मिक व्याधियों के लपेटे में आने से बचने की भरसक कोशिश करते हैं मगर जीवन में इन व्यर्थ के वाह्याचारों से चाहे अनचाहे लिथड़े चलते हैं और कुछ का जीवन और रचना दोनों इनसे संलिप्त मिलता है. इस तरह, हमारे अधिकतर दलित लेखकों की चेतना विभाजित मिलती है. इन पंक्तियों के लेखक ने युवा दलित कवि, आलोचक एवं सम्पादक और हिंदी विषय से सहायक प्राध्यापक डा. कर्मानन्द आर्य के साथ मिलकर वर्ष 2018 के अंत में जिन 56 कवियों की प्रतिनिधि 333 कविताओं के सामूहिक संकलन ‘बिहार-झारखण्ड की चुनिन्दा दलित कविताएँ’ पुस्तक सम्पादित की थी, उसके क्रम में हमें हमारे अनेक लेखकों की खंडित चेतना उजागर हुई थी. यहाँ यह दुहराना जरूरी है कि रचना एवं जीवन में सम्यक दलित चेतना भरने के लिए बुद्ध, अम्बेडकर जैसे लोगों के वैज्ञानिक सोच के मेल में आए विचारों पर चलना जरूरी है. दूसरे शब्दों में, केवल दलित लेखक होने से बात नहीं बनती, दलितों का अम्बेडकरवादी लेखक होना जरूरी है. वर्ना, भक्ति और धर्म-आसक्ति की विरुदावली रचकर भी तो एक दलित दलित लेखक बना रह ही सकता है! यही कारण है कि दलित साहित्य के उद्देश्य और इनपुट को स्पष्ट रखने के उद्देश्य से ‘अपेक्षा’ पत्रिका के सम्पादक रहे अम्बेडकरवादी आलोचक डा तेज सिंह ने दलित साहित्य को अम्बेडकरवादी साहित्य कहने की मुहिम चलाने की असफल कोशिश की थी।
मिथक, इतिहास से उपजे हुए प्रतीक, बिम्ब व मुहावरे अलग-अलग समाज के लिए अलग तरह से काम करते हैं. शोषक जातियों और ‘रिसीविंग एंड’ पर रहीं जातियों वे सौंदर्यशास्त्र अथवा साहित्यिक प्रतिमान इसी लिहाज से हमेशा एक नहीं हो सकते. राम, रावण, द्रोणाचार्य, एकलव्य, अर्जुन, विभीषण, शूर्पनखा, दुर्गा, सरस्वती जैसे मिथकीय पात्र एवं कथित देवी-देवता दलित और गैरदलित साहित्य में एक ही तरीके से चित्रित नहीं हो सकते. एक ही टूल विभिन्न काल, परिस्थिति एवं कार्य में अक्सर भिन्न तरीके से प्रयुक्त होंगे. अतः इतिहास एवं मिथक में जातीय नायकों अथवा जातीय नायक में फिट किये गए चरित्रों के प्रति भी अनन्य-अनालोच्य मोह रखना भी प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक सोच वाले समाज के विकास में बड़ी बाधा है और दलित साहित्य में त्याज्य है. दलित साहित्य पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र से चालित न होकर नये सौंदर्यशास्त्र को पाने से स्वाभाविक एवं निर्बाध गति पाएगा. दलित साहित्य में अगर मिथकीय दलित वंचित चरित्रों की प्रशंसा और स्वीकार है भी तो उन्हें आवश्यक रूप से मानव होना है, मानवेतर एवं अलौकिक नहीं. वाल्मीकि और व्यास को भारत के पहले दलित कवि के रूप में चित्रित करने वाले दलित एवं गैरदलित जन भी इसी व्यर्थ-वृथा मोह में बीमार हैं. यदि ये लोग दलित हुए भी हों तो मनुवादी साहित्य के पोषक एवं स्वजन विरोधी होने के कारण ये दलित कवि नहीं कहला सकते. जाति जैसी बीमारी को जहाँ भगाने की सुनियोजित तैयारी होनी चाहिए वहाँ हम अपनी जाति की समृद्ध विरासत मिथकीय एवं ऐतिहासिक पात्रों में नहीं देख सकते.
किंचित विषयांतर से बताऊँ कि एक बार एक रेडियो वार्ता की प्रस्तुति पिछड़ी जाति के एक स्थानीय कलमकार, जो सवर्ण बुद्धिजीवियों का पिछलग्गु है, ने पटना आकाशवाणी में की। वार्ता बिहार में दलित कथा लेखन से सम्बद्ध थी, मगर, उसमें जो कथाकारों के नाम गिनाए गए वे सब के सब गैर दलित थे, सवर्ण और पिछड़े थे। मशहूर दलित कथाकार विपिन बिहारी एवं बुद्धशरण हंस तक का उन्होंने नाम नहीं लिया था।
इसलिए, यह तथ्य गौर करने लायक है कि ऊंच-नीच की वर्णवादी व्यवस्था वाले समाज में मार खाया एक दलित तबके से आने वाला लेखक यदि अपनी रचनाओं में इन चीजों को नहीं लाता तो वह या तो वंचित समाज के प्रति बेईमान है अथवा परम्परा से चले आ रहे साहित्य की रूढ़ परम्परा का वाहक एवं सहचर. और, ऐसे लोगों को मैंने अपने सम्पर्कियों-परिचितों में भी लक्षित किया है. हद तो यह भी हुई है कि मैंने कुछ लोगों से छापने के लिए रचनाएँ मांगीं मगर उन्होंने गुप्त अथवा प्रकट रूप से केवल इसलिए मना कर दिया कि उनकी दलित प्रास्थिति सार्वजनिक हो जाएगी. ऐसे कम से कम दो जने, एक महिला और एक पुरुष कवि, तो मुझे मीडिया से ही मिले. उक्त महिला को तो आखिरकार छपने के लिए मना लिया मैंने, उसकी इस शर्त को मानकर कि उसका पूरा परिचय और पता नहीं छपेगा. आप समझ सकते हैं कि ऐसे लोग किस तरह की पत्रकारिता करते होंगे और मीडिया हाउस में क्या बनकर रहते होंगे? क्या पढ़ने लिखने का, प्रबुद्ध होने का यही मतलब है?वैसे, मीडिया में काम करने वाले दलितों को वहाँ की सवर्ण व्यवस्था से लगते भय की डिग्री का भी पता चलता है। मीडिया की बात आई है तो रचना में स्वानुभूत एवं सहानुभूत के फर्क को समझने के लिए एक रोचक प्रसंग हम यहाँ देख लें. साहित्यिक हिंदी मासिक ‘कथादेश’ ने एक बार सवर्ण लेखकों से अपनी आत्मबयानी लिखने की अपील की एवं उसे पत्रिका में एक स्तंभ विशेष में जगह देने का ऐलान किया. लेखकों को अपने घर-परिवार, रिश्ते-नाते का एवं अपना वह अनुभव साझा करना था जो दलितों-वंचितों के विरुद्ध जाता था. मजा यह कि इस स्तंभ के तहत केवल एक अनुभव ही प्रकाशित हो सका, वह था नामी पत्रकार कृपाशंकर चौबे का. उस स्वानुभव लेख में भी अपनी अथवा अपनों की कोई उल्लेखनीय खबर नहीं ली जा सकी. ले दे कर अपने खानदान की दलितों के प्रति दयालुता का बखान ही किया गया, परिजनों, पूर्वजों को असुविधा में डालने वाला कोई प्रसंग नहीं लिया गया।
बिहार में दलित साहित्य पर चर्चा आगे बढ़ाते हैं. इस क्रम में अब बिहार क्षेत्र में दलित लेखकों की रचनात्मक उपस्थिति की ब्योरेबार पड़ताल रखते हैं. पटना में रहने वाले प्रसिद्ध अम्बेडकरवादी एवं बौद्ध, बुद्धशरण हंस (मूल नाम ‘दलित पासवान’) का नाम अग्रगण्य एवं विशेष उल्लेखनीय है. इस लेखे क्षेत्र से किसी दलित लेखक का पहला सबसे बड़ा काम उनका ही है. कहें तो उनका लिखना-पढ़ना एक इंच भी अम्बेडकरवादी-मानवतावादी वसूलों से हटकर नहीं होता. 1942 में जन्मे बुद्धशरण की किताबें एवं रचनाएं सन 1960 के दशक से ही छपनी शुरू होती हैं. वे तब से अपनी किताबें एवं बुद्धिवादी नायकों-विचारकों एवं प्रसंगों पर छोटी-छोटी कम कीमत की पुस्तिकाएँ प्रायः खुद छापते और बेचते रहे हैं. सन 2000 में उन्होंने झोला पुस्तकालय की बुनियाद डाली जो अभी सावित्री बाई फुले झोला पुस्तकालय नाम से चल रहा है। इसके तहत बुद्ध, अम्बेडकर, सावित्री बाई फुले, महामना ज्योति बा फुले, पेरियार आदि पर वैचारिक प्रबोधन वाली सस्ती पतली किताबों का सेट झोला में डालकर पूरे बिहार में बेचने की कोशिश करते हैं ताकि लोग वैज्ञानिक सोच के महापुरुषों एवं उनके विचारों से परिचित हों। इस क्रम में सामान्य पाठकों की जेब पर दबाव न पड़े, इस बात का ख्याल रखा जाता है। बुद्धशरण हंस शानदार कथाकार एवं निबंधकार हैं और समसायिक विषयों पर लिखने वाले मंजे बुद्धिवादी भी. दुखद है कि हिंदी साहित्य के मठाधीशों एवं सामान्य एवं विशिष्ट पाठकों के बीच वे लगभग अनजान से हैं. विडंबना यह भी कि दलित साहित्य में भी जो जगह और चर्चा उन्हें मिलनी चाहिए वह नहीं हो पाया है. उनके पाठक दलित बहुजन वर्ग से ही हैं, उसमें भी खासकर बौद्ध और अम्बेडकरवादी विचारधारा से जुड़े हुए लोग. सूरजपाल चौहान द्वारा संपादित ‘हिंदी दलित कथाकारों की प्रथम प्रकाशित कहानियां’ साझा कहानी संकलन की गवाही लें तो वे सबसे पहले प्रकाशित होने वाले हिंदी दलित कथाकार बुद्धशरण हंस ही हैं. (हालाँकि यह श्रेय बिहार-झारखण्ड के ही एक अन्य वयोवृद्ध दलित साहित्यिक दयानन्द बटोही को मिलना चाहिए, जिसका यथाप्रसंग जिक्र आपको इस आलेख में आगे मिलेगा भी. यह भ्रम बटोही की कहानी इस संकलन में न छप पाने के चलते शायद बन रहा है.) 1978 में बुद्धशरण हंस का कहानी संग्रह ‘देव साक्षी है’ छप चुका था. किसी हिंदी दलित कथाकार का यह पहला कहानी संग्रह है। उन्होंने अन्य दो कहानी संग्रह ‘को रक्षति वेदः’ एवं ‘तीन महाप्राणी’ के अलावा चार दर्जन से अधिक वैचारिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन भी किया है. उन्होंने अपने संस्मरणों को 5 खण्डों में ‘टुकड़े-टुकड़े आईना’ नाम से प्रकाशित कराया है जो छोटे छोटे स्वतंत्र आलेखों के रूप में हैं और रोचक छोटी कहानियों सा प्रभाव छोड़ते हैं. हालांकि इन्हें वे अपनी आत्मकथा बताते हैं। वे निरंतरता में सन 1989 से लगातार अपने बल पर अम्बेडकर मिशन पत्रिका नामक मासिक निकाल रहे हैं। यह दलित चेतना की साहित्यिक – वैचारिक पत्रिका है जिसमें साहित्य पर कम और ज्यादा जोर अम्बेडकरवादी विमर्श, प्रबोधन एवं प्रशिक्षण पर दिया जाता है. वर्णवादियों की आँखों में चुभने वाली इस पत्रिका के बोल्ड-बेबाक आलेखों को लेकर सम्पादक बुद्धशरण को कई बार कोर्ट में भी घसीटा गया. वे बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे और आइएएस में प्रोन्नति पाकर रिटायर हुए. उन्हें बिहार सरकार के मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा) विभाग का द्वितीय सर्वोच्च सम्मान ‘बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर सम्मान’ मिल चुका है.
दूसरी तरफ, सन 1965 में जन्मे विपिन बिहारी की बात करें तो वे बिहार से आने वाले भारत के अबतक के सबसे अधिक अम्बेडकरवादी हिंदी कथा साहित्य रचने वाले विलक्षण लेखक हैं. विपिन लगातार रचनारत रहने वाले प्रथम पीढ़ी के दलित कथाकार ठहरते हैं। उनके 13 कहानी संग्रह (जिनमें ढाई सौ से अधिक कहानियाँ हैं), 8 उपन्यास एवं एक लघुकथा संग्रह एवं दो काव्य संग्रह प्रकाशित हैं। उनकी खासियत है कि वे गैर दलित विषय पर कम ही लिखते हैं और समर्थ समर्पित अम्बेडकरवादी लेखक हैं। उनकी कहानियाँ ‘हंस’ और ‘कथादेश’ जैसी मशहूर पत्रिकाओं में भी छप चुकी हैं. कई कहानियां, कहानी संग्रह, उपन्यास व कविताएँ स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में लगी हैं और उनपर एमफिल एवं पीएचडी हेतु शोध भी किये जा रहे हैं. यदि उनके कथा साहित्य में शिल्प और रचाव के स्तर पर कुछ और ठहराव, पैनापन और बेधकता होती तो वे निश्चय ही दलित साहित्य के प्रेमचंद कहलाते. जो हो, उन्होंने जो प्रभूत लेखन किया है वह कम से कम दलित साहित्य में उन्हें एक महत्वपूर्ण स्थान पाने का अधिकारी बनाता है.
बोकारो, झारखण्ड से आने वाले प्रह्लाद चंद्र दास बिहार क्षेत्र के एकमात्र लेखक हैं जो कथाकार के रूप में मुख्यधारा के हिंदी साहित्य के लिए भी जाना पहचाना नाम हैं. हालाँकि उनकी मौलिक अथवा प्राथमिक पहचान कथाकार मात्र के रूप में रही है, न कि दलित कथाकार के रूप में. कहा जाता है कि कहानीकार के रूप में वे ‘हंस’ के सम्पादक रहे कथाकार राजेन्द्र यादव की खोज थे. ‘हंस’ में छपी और चर्चित हुई कहानी ‘लटकी हुई शर्त’ से वे साहित्य जगत में कभी सुर्ख़ियों में आए थे और इस महत्वपूर्ण पत्रिका के मंच से उनकी कई कहानियाँ छपी थीं. झारखण्ड के आदिवासियों, दलित-वंचितों, कल-कारखाने व कोलियरी से जुड़े श्रमिकों के विषम जीवन स्थितियों एवं गतियों को उन्होंने अपनी अनेक कहानियों का विषय बनाया है. अबतक उनके तीन कहानी संग्रह (पुटुस के फूल, पराये लोग एवं आग ही आग) और एक उपन्यास ‘मौसी का गाँव’ प्रकाशित हैं. कई कहानियां अन्य भाषाओँ में अनूदित तथा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं. उन्होंने अपने कवि को अंडरटोन ही रखना मुनासिब समझा गो कि कविताई भी वे जबर्दस्त करते हैं. मैंने अपने संपादन में दो मौकों पर उनकी कुछ रचनाएँ छापी हैं. प्रह्लाद चन्द्र का जन्म वर्ष 1950 है और, फ़िलवक्त वे बोकारो स्टील प्लांट से ‘डीजीएम’ पद से सेवानिवृत्त हो रचना-सक्रिय जीवन बिता रहे हैं.
बोकारो में रहने वाले लेखक दम्पती दयानन्द बटोही (जन्म 1942) एवं कावेरी (जन्म 1951) दलित साहित्य में जाने-माने नाम हैं. उनका नाता बिहार से भी रहा है. बटोही बिहार, झारखंड के ही नहीं वरन भारत के ही प्रथम प्रकाशित हिंदी दलित कथाकार ठहरते हैं. बटोही ने अपनी सेलिब्रिटी कहानी ‘सुरंग’ के जरिये ख्याति प्राप्त की थी. यह कहानी देश के अनेक स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में लगी है और इसपर कई शोध अध्ययन भी हुए हैं. बटोही की कहीं भी प्रथम प्रकाशित होने वाली रचना की बात करें तो वे पहली बार सन 1960 में एक पत्रिका में छपे थे. कहानी संग्रह (‘कफ़नखोर’, ‘सुबह से पहले’, एवं ‘सुरंग एवं अन्य कहानियां’, कविता संग्रह (‘यातना की ऑंखें’, ‘मथा दर्द’, तथा ‘बाबा साहब अम्बेडकर एवं अन्य कविताएँ’, आलोचना (साहित्य और सामाजिक क्रांति) तथा एक नाटक (नई पीढ़ी नये कर्णधार) प्रकाशित हैं. बटोही की पत्नी भी लेखिका हैं और इस वयोवृद्धवस्था में भी वे रचनाशील हैं और फेसबुक पर सक्रिय हैं। कावेरी की पहली रचना सन 1967 में छपी थी. कावेरी को प्रथम प्रकाशित स्त्री दलित उपन्यासकार एवं आत्मकथा ‘टुकड़ा-टुकड़ा जीवन’ की मार्फत बिहार-झारखण्ड की पहली दलित स्त्री आत्मकथाकार होने का यश प्राप्त है. उनकी रचनाओं में उजली हंसी के छोर पर, नदी बहती रही, डा. बाबा साहब अम्बेडकर, राजा सलहेस (चारों काव्य संग्रह), द्रोणाचार्य एक नहीं, अभावों में पलता स्वाभिमान (कहानी संग्रह), मिस रमिया, शिखा (उपन्यास), डिप्टी कलक्टर का साला, चौहरमल-रेशमा (नाटक) शामिल हैं. पटना में रहने वाले 56 वर्षीय परमानन्द राम प्रतिभाशाली कवि हैं और सतत रचनाशील हैं. उनकी प्रकाशित किताबें हैं- ‘एकलव्य’ एवं ‘जागृत कांता’ (दोनों खंड काव्य) तथा ‘अगला मुकाम मुहब्बत हो’ (ग़ज़ल संग्रह) व काव्य संग्रह ‘नैसर्गिकता अविराम’, जबकि ‘शब्द संशय से परे है’ कविता की हाल में प्रकाशित किताब है. मिथकीय संस्कृत काव्य पुस्तक महाभारत के प्रसिद्ध दलित/आदिवासी पात्र एकलव्य पर एक पूरी काव्य पुस्तक का सृजन करना बताता है कि कवि का कंसर्न क्या और उनकी काव्य प्रतिभा कैसी है. मगर, विडम्बना देखिये कि इस कवि को लोग राष्ट्रीय स्तर पर क्या स्थानीय स्तर पर भी बहुत कम ही जानते हैं.
पटना में ही वास करने वाले रामेश्वर राकेश (उम्र 77 वर्ष) सन उन्नीस सौ सत्तर के दशक में ही ‘युगचेतना’ नाम से अम्बेडकर पर खंड काव्य लिखकर अपनी विकसित समाजचेतना का परिचय देते हैं. ‘संकल्प-पुरुष’ नाम से एक प्रबंध काव्य और नवगीत की पुस्तक ‘कुछ केतकी कुछ कनेर’ भी प्रकाशित हैं. कवि रामेश्वर बताते हैं कि एक दफा उनकी किसी पत्रिका में छपी रचनाओं से प्रभावित होकर कुछ पाठक उनको खोजते हुए उनके पास पहुंचे थे. आचार्य वल्लभ शास्त्री भी उनकी कविताओं के मुरीद रहे. सन 1936 में जन्मे और बिहार प्रशासनिक सेवा में अधिकारी रहे रामचरित्र दास ‘अचल’ ने भी ‘ज्योति पुरुष अम्बेडकर’क नामक काव्य संग्रह एवं कबीर पर ‘विनय पुष्प’ नामक कविता की पुस्तक लिखकर अपनी बुद्धिवादी दृष्टि एवं वैज्ञानिक चेतना को प्रत्यक्ष किया है. वे अनुवादक है रहे, कुछ अंग्रेजी पुस्तकों, आलेखों का हिंदी में अनुवाद किया. इसी वर्ष इनकी मृत्यु हुई है। बिहार के गृह सचिव पद से अवकाश प्राप्त पूर्व आइएएस 80 वर्षीय जियालाल आर्य ने गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में विपुल लेखन किया है. गीत, नवगीत, ग़ज़ल जैसी विधाओं में ज्यादा काव्य रचना की है. उनकी कृतियों में 5 काव्य संग्रह, 6 कथा संकलन एवं 5 उपन्यास शामिल हैं. अम्बेडकर, सावित्री बाई फुले सहित कई मिथकीय एवं ऐतिहासिक बहुजन नायकों पर भी उन्होंने कविताएँ, आलेख एवं जीवनी लिखी हैं. उन्हें भारत सरकार व बिहार सरकार समेत विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से अनेक पुरस्कार/सम्मान प्राप्त है तथा वे 20 से अधिक सरकारी, गैर सरकारी लोकोपयोगी एवं साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के संस्थापक, अध्यक्ष व न्यासी भी रहे हैं. पटना के रहवासी बन चुके आर्य की जन्मभूमि जहाँ उत्तरप्रदेश है वहीं कर्मभूमि बिहार. वीरचन्द्र दास बहलोलपुरी वैशाली क्षेत्र के गाँव-देहात में रहकर भी एक सजग अम्बेडकरी लेखक के बतौर हमारे सामने आते हैं. वे किसान हैं और सरकारी शिक्षक भी रहे हैं. उनकी छोटी छोटी कहानियाँ मुझे काफी प्रभावित करती हैं. उनके ख्यात राजनेता लालू प्रसाद पर ‘लालू नियरे राखिए’ नाम से व्यंग्य दोहा संग्रह (काव्य) तथा एक कहानी संग्रह ‘धृतराष्ट्र की ऑंखें’ (जिसमें एकांकी ‘प्रत्यावर्तन’ एवं ‘टोपीवाला’ तथा 4 आलेख शामिल हैं) प्रकाशित हैं. उनकी कई कहानियाँ ‘बेला’ (आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री द्वारा मुजफ्फरपुर से सम्पादित-प्रकाशित) एवं ‘अम्बेडकर मिशन पत्रिका’ (बुद्धशरण हंस, पटना द्वारा सम्पादित) में भी छपती रही हैं. 80 के पड़ाव पार कर चुके बाबूलाल मधुकर मूलतः हिंदी की उपभाषा मगही में लिखते हैं. उनका मगही में बहुप्रशंसित उपन्यास ‘रमरतिया’ सन 1966 में प्रकाशित है, जबकि इधर, 2017 में प्रकाशित उनका हिंदी काव्य संग्रह ‘मसीहा मुस्कुराता है’ बिहार क्षेत्र में चर्चे में है. 2018 में ‘नंदलाल की औपन्यासिक जीवनी’ नाम से दो खंडों में उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई है. हालाँकि यह पुस्तक साहित्य में मील का पत्थर साबित हो सकती थी, अगर हड़बड़ी में नहीं लिखी जाती. पुस्तक लगभग अपठनीय एवं भौंडे सेक्स प्रसंग से अटी पड़ी है. बाबूलाल साहित्य कोटे से बिहार विधान परिषद् के सदस्य रहे हैं और 1974 के जेपी आन्दोलन के दौरान ‘मैला आँचल’ के साहित्याकर फणीश्वरनाथ रेणु के सान्निध्य में रहे तथा बाबा नागार्जुन एवं राम प्रिय मिश्र ‘लालधुंआ’ आदि मशहूर बिहारी कवियों के साथ पटना की सड़क, नुक्कड़ एवं चौक-चौराहों पर अपनी आन्दोलनधर्मी कविताओं का ओजस्वी पाठ किया, जेल भी गये. कवि को बिहार सरकार का ग्रियर्सन सम्मान एवं कई अन्य सरकारों, संस्थाओं से सम्मान/पुरस्कार प्राप्त हैं. पूर्णिया में रहने वाले 80 पार के देवनारायण पासवान ‘देव’ साहित्य की कविता, कहानी, नाटक जैसी प्रमुख विधाओं में प्रभावी हस्तक्षेप रखते हैं. उनकी कुछ कहानियां ‘कथादेश’ आदि मुख्यधारा की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में भी छप चुकी हैं. ‘सत्यनारायण कथा’ उनकी चर्चित कहानी है. उनकी प्रकाशित किताबों में कविता संग्रह ‘संघर्ष आज भी जारी है’, कहानी संकलन ‘सत्यनारायण कथा’, ‘आखिरी नमाज’ एवं ‘यही बाक़ी निशां होगा’, नाटक ‘विजेता कौन’ व ‘मस्जिद में हुई अजान’ शामिल हैं.
पटना में रहने वालीं रंजु राही का ‘क्षितिज के उस पार’ नाम से एक काव्य संग्रह प्रकाशित अब तथा एक प्रकाशनाधीन है. दलित स्त्री कवियों के लिहाज से बिहार क्षेत्र से उनकी सी सक्रियता और धार वाली रचनाकारों का टोटा है. वे दलित-स्त्री मुद्दों पर सोशल एक्टिविज्म में भी काफी सक्रिय रहती हैं.
1984 में जन्मे कर्मानन्द आर्य उत्तरप्रदेश मूल के हैं और लगभग एक दशक से उनका कर्मक्षेत्र बिहार है. दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्ववविद्यालय, गया में हिंदी के सहायक प्राध्यापक कर्मानंद अकूत रचनात्मक प्रतिभा के हैं. खासकर, उनकी काव्य प्रतिभा की गवाही उनके तीनों काव्य संग्रह ‘अयोध्या और मगहर के बीच’, ‘डरी हुई चिड़िया का मुकदमा’ तथा हाल में आया कविता संग्रह ‘डा कर्मानंद आर्य की चयनित कविताएं’ देते हैं. उनके गद्य लेखन के सरोकार भी दिन-ब-दिन घने होते जा रहे हैं. अबतक उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य की दो दर्जन से अधिक पुस्तकों के लिए अध्याय लेखन किया है. विभिन्न विमर्शपरक अस्मितामूलक संगोष्ठियों, सेमिनारों में वे विशेषज्ञ वक्ता के रूप में सहभाग करते हैं. आपके सम्पादन में आलोचना की एक सामूहिक पुस्तक ‘अस्मितामूलक साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’, इन पंक्तियों के लेखक के साथ ‘बिहार – झारखण्ड की चुनिन्दा कविताएं’, मराठी एवं हिंदी के दलित लेखक दामोदर मोरे के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर किताब प्रकाशित है. बिभाश कुमार (जन्म वर्ष 1978) एवं नागेन्द्र प्रसाद (जन्मतिथि 1983) एक ही कोख से जनमे युवा कवि हैं, मगर, जबरदस्त. प्राथमिक गवाह हैं इन दोनों की स्वरचित कविताओं से जुड़ीं फेसबुक पोस्टें. बिभाश के दो काव्य संग्रह ‘खामोश बहती धाराएं’ एवं ‘मछलियों का कोरस’ प्रकाशित हैं एवं एक संग्रह जल्द ही आ रहा है. बिभाश अभी बिहार पुलिस सेवा में डीएसपी हैं जबकि नागेन्द्र बिहार वित्त सेवा में ‘सहायक आयुक्त, राज्य कर’ पद पर नियुक्त हैं. बिपिन बिहारी टाईगर संभावनाओं से भरे पूरे ताजा कवि हैं. गद्य के क्षेत्र में भी काम कर रहे हैं. गद्य क्षेत्रे उन्होंने एक ‘डुबियस डिस्टिंक्शन’ सरीखा काम भी किया है, 8 लोगों के साथ मिलकर कथित तौर पर एक साँझा उपन्यास का लेखक बनकर! ऐसी लोकप्रियता पाने की हड़बड़ी से बचना होगा यदि वृहतर कॉज के लिए काम करना है. अन्य उल्लेखनीय रचनाकारों में अजय यतीश धारदार कवि-कथाकार हैं जो चर्चित दलित साहित्य भी हैं. इनके दो कविता संग्रह पिछले दो सालों में बैक टू बैक आ चुके हैं एवं कहानी संकलन प्रतीक्षित है. भारतीय रिजर्व बैंक में उच्चाधिकारी रहे आर पी घायल पटना में रहते हैं. दमदार ग़ज़लकार हैं, राष्ट्रीय स्तर पर नामचीन शायरों के साथ भी ग़ज़ल पाठ किया है. ये दलित मुद्दों पर कम लिखते हैं. पूर्णिया जिले से आने वाले कीर्त्यानन्द कलाधर मजबूत कला-शिल्प के कवि थे, मगर, दलित मुद्दों पर इनकी कलम भी कम ही चली। पिछले साल इनकी मृत्यु हो गयी। उभरते कवि जयप्रकाश फाकिर की काव्य प्रतिभा अद्भुत है. दलित-वंचित एवं प्रेम, अनुराग-विरह आदि प्रसंगों में वे अछूते लोकेशन से कथ्य और बिम्ब पकड़ते हैं. उर्दू-फ़ारसी शब्दों का निवेश इनके यहाँ बेसी मिलता है. शब्द-शिल्पी तो ये हैं ही, शब्दों के बाजीगर भी! डा रमाशंकर आर्य बिहार क्षेत्र से आत्मकथा लिखने वाले पहले दलित लेखक हैं. पुस्तक ‘घुटन’ नाम से है. दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर रमाशंकर बिहार सरकार के एक विश्वविद्यालय के वीसी और मशहूर पटना कॉलेज के प्राचार्य रह चुके हैं हैं. अरविन्द पासवान का पैतृक घर हाजीपुर में हैं एवं कई वर्षो से पटना में रह रहे हैं। उनका एक काव्य संग्रह प्रकाशित है ‘मैं रोज़ लड़ता हूँ’ नाम से। रामकृष्ण परार्थी हिंदी के साथ साथ मैथिली में भी लिखते हैं। हिंदी में वे एक उपन्यास भी लिख चुके हैं जबकि मैथिली के वे प्रथम दलित कवि हैं जो मूलतः अम्बेडकरवादी धारा की कविताएं लिखते हैं। डा प्रभा कुमारी उभरती हुई कथाकार हैं, हंस में भी एक कहानी छप चुकी है. बिहार मूल की हैं, झारखंड में बस गयी हैं, सरकारी डाक्टर हैं. इस क्रम में, दलितवंशी लेखकों में विनोद कुमार चौधरी, रामेश्वर प्रसाद, ऋचा, सविता कुमारी, हुबलाल राम ‘अलकहा’, सौरभ आर्य, लायची हरि राही, उमेश कुमार, देशदीपक दुसाध, संजीवन कुमार मल्लिक, भीमशरण हंस, दिलीप कुमार राम, कृष्ण चन्द्र चौधरी, कपिलेश प्रसाद, सत्यदेव, झौली पासवान, रामउचित पासवान, जगदीश प्रसाद राय, गंगा प्रसाद, रामलषण राम ‘रमण’, बुचरू पासवान, महेन्द्र नारायण राम, राकेश प्रियदर्शी आदि लेखकों के नाम भी लिए जा सकते हैं.
मेरा मत है कि बिहार क्षेत्र के इन लेखकों में अधिकांश ही ‘अज्ञातकुलशील’ हैं। इन लेखकों को यदि प्रकाशित होने का सम्यक मौका और मंच मिले तो बिहार से हिंदी साहित्य में उनकी एवं दलित साहित्य की उर्वर एवं प्रभावी उपस्थिति दर्ज़ हो सकती है. यहाँ ध्यान देने योग्य है कि एक तो दलित वर्ग के लेखकों को मुख्यधारा के साहित्य में स्वीकार्यता मिलना कठिन है, दूसरे कि स्वीकार्यता, प्रोत्साहन एवं मंच के अभाव में भी उनकी रचनात्मकता कुंद हो जाती है, मारी जाती है. नतीजा, अधिकतर दलित लेखक देर से लिखना शुरू करते हैं. वैसे, एक-डेढ़ दशक से प्रयोग में आया सोशल मीडिया एवं उसके फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, यूट्यूब, वेबसाइट, स्मार्टफोन, लैपटॉप, कंप्यूटर जैसे एजेंट और उपादान दलितों की रचनात्मक भूख एवं प्रेरणा को हवा और हौसला देने में ‘वरदान’ की तरह काम आ रहे हैं. आप देखेंगे कि विष्णु नागर, विष्णु खरे (अब नहीं रहे), आलोकधन्वा, उदयप्रकाश, अशोक वाजपेयी, असगर वजाहत, चंद्रकिशोर जायसवाल, अवधेश प्रीत, हृषीकेश सुलभ, मदन कश्यप, कर्मेंदु शिशिर, सृंजय, अशोक कुमार पांडेय जैसे वरिष्ठ और साठ की उम्र के पार के नामचीन दलितेतर हिंदी लेखक ही नहीं बल्कि कँवल भारती, मोहनदास नैमिशराय, श्यौराज सिंह बेचैन, जयप्रकाश कर्दम, अजय नावरिया, मलखान सिंह (अब नहीं रहे), कैलाश वानखेड़े, असंगघोष, कौशल पँवार जैसे बड़े अथवा पॉपुलर दलित लेखक भी फेसबुक, ब्लॉग आदि पर सक्रिय हैं, युवा लेखकों-पाठकों की उपस्थिति तो खैर, विपुल है ही. सोशल मीडिया ने हिंदी साहित्य के दलित हिस्से को बेशक, नई जमीन दी है. कुछ युवा कवि-लेखक तो फेसबुक के माध्यम से ही सामने आ रहे हैं. फेसबुक ऐसा मंच है जहाँ अपनी रचनाओं को प्रस्तुत कर एक अदना सा अथवा अज्ञातकुलशील भी किसी आसरा का मोहताज नहीं रह जाता. अनेक अच्छे व चर्चित रचनाकार तो सोशल मीडिया की ही देन हैं. उत्तरप्रदेश से आने वाले बहुजन युवा कवि बच्चा लाल ‘उन्मेष’ अपनी एक कविता ‘कौन जात हो भाई’ के साथ ही सोशल मीडिया पर वायरल हो गये थे। उनकी इस कविता पर जहां एनडीटीवी के पत्रकार एवं लेखक प्रियदर्शन ने टिप्पणी की वहीं इसी न्यूज चैनल के मशहूर मीडियकर्मी विनोद दुआ (अब नहीं रहे) ने फेसबुक एवं यूट्यूब पर इस कविता का पाठ किया।
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आलेख :
डा. मुसाफ़िर बैठा
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