बिहार क्षेत्र के प्रगतिशील कवियों में विगलित दलित व आदिवासी चेतना
बिहार क्षेत्र से समकालीन प्रगतिशील मान्य कवियों की बात करें तो अरुण कमल सिरमौर हैं और उनको राष्ट्रीय स्तर पर भी लगभग यही स्थान प्राप्त है. पटना में रहने वाले इस आलोचक-संपादक एवं प्राध्यापक कवि के अबतक पांच काव्य-संग्रह आ चुके हैं. मज़ा यह कि सीधे दलित प्रसंग की कोई कविता इनके पास नहीं दिखती. अलबत्ता, दलित विमर्श का यह तथ्य वायस हो सकता है कि क्यों प्रगतिशील कवि अरुण कमल ने अपने चारों संग्रह को शुरू करने से पहले तुलसीदास की चौपाई मंगलाचरण की तरह लगा दी है.
वैसे, बिहार के ही एक युवा आलोचक प्रमोद रंजन (जो चर्चित बहुजनवादी वैचारिक-साहित्यिक पत्रिका ‘फॉरवर्ड प्रेस’, जो अब बन्द हो चुकी है, के प्रबंध संपादक रहे हैं) ने अरुण कमल की एक कविता से वह दलित प्रसंग ढूंढ़ निकला है जिसमें दलितों-बहुजनों के प्रति कवि की दृष्टि उच्चवर्णीय ठहरती है. अरुण कमल की कविता ‘दस जन’ की पंक्ति – फेंका है उन्होंने रोटी का टुकड़ा/और टूट पड़े गली के भूखे कुत्ते – की याद दिलाते हुए प्रमोद रंजन कहते हैं कि सिर्फ रामविलास शर्मा आदि आलोचकों की ही नहीं बल्कि मौजूदा समय में रचनारत तमाम मार्क्सवादियों की प्रतिबद्धताओं की भी पड़ताल की जानी चाहिए। उन्होंने बताया कि अरुण कमल ने यह कविता 1978 में उस समय लिखी जब उत्तर भारत में पहली बार समाज के कुछ पिछड़े सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी। ये गली के कुत्ते कौन हैं, आप समझ सकते हैं। इसी कविता में अरुण कमल की ही पंक्ति है – मारे गये दस जन / मरेंगे और भी…/ बज रहा जोरों से ढोल/ बज रहा जोरों से ढोल/ ढोल
… कौन हैं ये दस जन? मरेंगे और भी पर ध्यान देने पर पता चलता है कि वाग्जाल के भीतर यह दस जन नब्बे जनों अर्थात सवर्णों के पक्ष में बहुजनों के विरुद्ध एक रूपक है।
और यहाँ ‘रावण के माथे’ कविता (अपनी केवल धार) में पारम्परिक अर्थ में मिथकीय बिम्ब को लेते हुए अरुण कमल को देखिये,वे रावण की रूढ़ छवि को यहाँ स्वीकार करते दीखते हैं-
एक माथा दूसरे से
दूसरा तीसरे से
तीसरा चौथे से…सातवें से…दसवें से
भिड़ा-टकराया,
हर माथा अलग-अलग बोला
अलग-अलग मुँह फेर ताका
एक-दूसरे को डाँटा
दिशा-ज्ञान बाँटा
ज़रा भी चली हवा कि माथा
माथे से टकराया
लड़ा-झगड़ा
एक ही धड़ पर आँखें मटकाता ।
लेकिन अन्दर-अन्दर रावण के ये
दस-दस माथे
रहे सोचते एक ही बात
एक ढंग से एक ही बात
रावण के ये दस-दस माथे ।
एक चर्चित कवयित्री हैं अनामिका. मुजफ्फरपुर में पली-बढ़ी, अभी दिल्ली विश्विद्यालय के एक कॉलेज में अंग्रेजी प्राध्यापक. उनकी एक कविता है-‘एक नन्ही सी धोबिन (चिरैया)-
दुनिया के तुड़े-मुड़े सपनों पर, देखो-
कैसे वह चला रही है
लाल, गरम इस्तिरी!
जब इस शहर में नई आई थी-
लगता था, ढूंढ रही है भाषा ऐसी
जिससे मिट जाएँगी सब सलवटें दुनिया की!
ठेले पर लिए आयरन घूमा करती थी
चुपचाप
सारे मुहल्ले में।
आती वह चार बजे
जब सूरज
हाथ बाँधकर
टेक लेता सर
अपनी जंगाई हुई सी
उस रिवॉल्विंग कुर्सी पर
और धूप लगने लगती
एक इत्ता-सा फुँदना-
लड़की की लम्बी परांदी का।
कई बरस
हमारी भाषा के मलबे में ढूंढा-
उसके मतलब का
कोई शब्द नहीं मिला।
चुपचाप सोचती रही देर तक,
लगा उसे-
इस्तिरी का यह
अध सुलगा कोयला ही हो शायद
शब्द उसके काम का!
जिसको वह नील में डुबाकर लिखती है
नम्बर कपडों के
वही फिटकिरी उसकी भाषा का नमक बनी।
लेकर उजास और खुशबू
मुल्तानी मिट्टी और साबुन की बट्टी से,
मजबूती पारे से
धार और विस्तार
अलगनी से
उसने
एक नई भाषा गढ़ी।
धो रही है
देखो कैसे लगन और जतन से
दुनिया के सब दाग-धब्बे।
इसके उस ठेले पर
पड़ी हुई गठरी है
पृथ्वी।
कविता पर नजर डाली आपने. एक धोबिन के दुःख को भी कितना ग्लैमराइज कर पेश किया है कवयित्री ने, लगता है जैसे यह काम एक स्वर्गिक आनंद को पाने जैसा हो.परम्परा से मिली वंचना को भी सुख जैसा बनना ही दलित विमर्श की धार को कुंद करने में मूसलचंदों का आ टपकना है. ऐसे ही तरकों से मानवाधिकारों से वंचना के कृत्य भी वन्दनीय लगने लगते हैं. दलित-आदिवासी वर्गों की बहुतेरी संस्कृति ऐसी ही हैं जिसके प्रति मुख्यधारा के समाज में प्रशंसा के भाव है. चर्चित दलित (आदिवासी) कवयित्री अपनी कविताओं में ऐसे ही भावों के लिए सराही जा रही हैं, जबकि यह सब चेतना को कुंद करने की बातें हैं,अधिकार वंचना से प्यार जताने जैसा है. बिहार सरकार के एक बड़े अधिकारी ने यहाँ की एक दलित जाति के पारंपरिक भोजन-चूहे को संरक्षित-संवर्धित करने की एक परियोजना ही बना डाली थी!
और क्यों न हम आलेख के अंत में मैथिली (अब एक संविधान स्वीकृत भाषा, रचना समय में हिंदी की एक बोली) के विद्यापति जैसे प्रभु एवं यशस्वी माने जाने वाले कवि की दलित रुचि की हम एक फौरी परीक्षा कर लें? बिहार के मिथिला क्षेत्र में हुए इस स्वनामधन्य कवि ने मूल रूप से शिव भक्ति में गीत रचे और राजाश्रय के प्रति अपने समर्पण भाव की अभिव्यक्ति करते हुए रस-रंग प्रिय पनाहदाता के इशारे पर अश्लील की हद तक जाकर शृंगारिक पद लिखे जिसका विवेचन यहाँ अभीष्ट नहीं है. यहाँ एक दलित प्रसंग की उनकी तुकमय कविता प्रस्तुत है जिसमें कोई दलित या दीन-हीन व्यक्ति अपने ब्राह्मण देवता से गिड़गिड़ाता हुआ बहुविध अर्जी लगा रहा है. इस भागता गीत का शीर्षक ‘ब्राह्मण’ है-
इनती करै छी हे ब्राह्मण मिनती करै छी
मिनती करै छी हे ब्राह्मण
कल जोरि करै छी परिणाम
धरम के दुअरिया हो ब्राह्मण
दाता दीनानाथ
कल जोरि करै छी परिणाम
अहर पंछ बीतलै हो ब्राह्मण
पहर पंथ बीतलै
ब्राह्मण छचिन्ह देबता
कल जोरि करै छी परिणाम
छप्पन कोरि देबता हो ब्राह्मण
धरम के दुअरिया
कल जोरि करै छी परिणाम
छप्पन कोरि देबता हो ब्राह्मण
रोकहि छी धरम के दुआरि
गाढ़ बिपत्ति परलै हो ब्राह्मण
बानहि घुमड लगतइ
कल जोरि करै छी परिणाम
अबला जानि खेलई छी हो ब्राह्मण
दाता दीनानाथ कल जोरी करै छी परिणाम
हँसइ खेलाबह हो ब्राह्मण, खैलालै चौपाड़ि
कल जोरि करै छी परिणाम
सुमिरन केलमै हो दाता दीनानाथ.
और, अब अंतकर टिप्पणी. हिन्दी का पारंपरिक पाठक, लेखक, आलोचक शायद सिर्फ उदात्त उदात्त ही सुनना चाहता है; लेकिन इससे क्या होता है? आप बैक एंड ह्वाइट में आइये. उदात्त को मलिन साबित करने वालों को कंट्राडिक्ट कीजिए, अब दलित साहित्य का प्रतिपक्ष सामने है जो आपकी सारी उदात्तताओं की परीक्षा में उतर चुका है, आपकी उदात्तताओं की शातिरी को बेनकाब कर रहा है.