रिश्तों का सौंदर्य (नई दृष्टि नई परिकल्पना)
एक थी कबरी बिल्ली रानी
सीधी भी और चतुर सयानी
कहीं से फिर एक चूहा आया
लम्बा कद पर दुबली काया
चूहा देख बिल्ली ललचाई
लेकिन उसको दया भी आई
चूहा कांप रहा था थर – थर
दया आंख में देह थी जर-जर
सोचा , अगर इसे खाऊंगी
मज़ा नहीं बिल्कुल पाऊंगी
मोटा ज़रा इसे होने दो
खा-खा इसे बड़ा होने दो
तभी स्वाद इसका पाऊंगी
पेट तभी मैं भर पाऊंगी
सोच कर ऐसा बिल्ली रानी
देती उसको दाना – पानी
चूहा जब यह भोजन पाता
खुशी-खुशी में समय बिताता
रोज – रोज की सेवादारी
बिल्ली को पड़ती थी भारी
लेकिन बिल्ली भूल रही थी
मोह -माया में झूल रही थी
देते – देते भोजन पानी
चूहे की वह हुई दीवानी
धीर-धीरे दिन वह आया
खा-खा कर चूहा मोटाया
देख उसे बिल्ली ललचाती
खाऊं कैसे सोच न पाती
चूहा न उससे डरता था
प्यार सदा उससे करता था
खूब झूमता इठलाता था
थोड़ा भी न घबराता था
एक दिवस बिल्ली ने ठाना
निश्चित ही चूहे को खाना
निश्चय कर चूहे को पकड़ा
पंजे में उसको फिर जकड़ा
चूहा एकाएक घबराया
फिर भोलेपन से मुस्काया
बोला , मम्मा क्या करती हो
पंजे में तुम क्यों भरती हो
मुझको दर्द बहुत है होता
डर से मेरा मन है रोता
छोड़ो मुझको अब जाने दो
भूख लगी है कुछ खाने दो
बिल्ली धीमे से मुस्काई
बहुत दिनों में घड़ी यह आई
अब निश्चय खाऊंगी तुझको
बहुत मज़ा आएगा मुझको
यही सोचकर तुझको पकड़ा
इसीलिए पंजे में जकड़ा
सुनकर बिल्ली की ये बातें
दिल को देने वाली घातें
चूहा की आंखें भर आईं
मौत सामने पड़ी दिखाई
बेचारा चूहा घबराया
उसको कुछ भी समझ न आया
बोला , फिर क्यों प्यार किया था
बेटे सा दुलार दिया था
छोड़ दे मां बेटे का ये खेल
तेरा मेरा क्या है मेल
अब तू मुझको खा ही ले मां
भरपूर मज़ा तू पा ही ले मां
सुन चूहे की ऐसी बातें
भूल गई वह अपनी घातें
दया बहुत बिल्ली को आई
अपनी करनी पर पछताई
बिल्ली का दिल भर आया
चूहे को फिर गले लगाया
आंख से आंसू झर-झर झरते थे
प्यार सदा वे अब करते थे ।
अशोक सोनी
भिलाई ।