बिरले ही बनते यहाँ , तुलसी सूर कबीर
1
घिस घिस कर पाषाण पर, हिना बिखेरे रंग
तभी चमकते हम यहाँ,सहें कष्ट जब अंग
2
तुलसी साधू हो गये, मोह गया जब टूट ।
सियाराम से हो गया, उनका नेह अटूट
3
गिर जाते जो पेड़ से , जुड़े नहीं ज्यूँ पात
बात बिगड़ने पर नहीं , आती फिरं वो बात
4
धोकर कलुषित भाव सब, बनो नेक इंसान
सीख यही देता हमें , पावन गंगा स्नान
5
फँसकर माया मोह में ,क्यों बदली है चाल
धरा यहीं रह जाएगा ,जब आयेगा काल
6
ख्याति और आलोचना , रहतीं हरदम साथ
कहीं किसी भी मोड़ पर ,नहीं छोड़तीं हाथ
7
लेखन है इक साधना,नहीं हवा में तीर
बिरले ही बनते यहाँ , तुलसी सूर कबीर
डॉ अर्चना गुप्ताह